Saturday, 28 May 2016

पल्लव साहित्य, कला एवं प्रशासन Pallava Literature, Art and Administration

साहित्य- कांची शिक्षा का महान् केन्द्र था। माना जाता है कि ह्वेनसांग एवं दिगनाग ने यहां शिक्षा पायी थी। पल्लव काल में साहित्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। पल्लव शासक साहित्य प्रेमी थे और कुछ स्वयं लेखक और कवि थे। पल्लवों की राजधानी कांची साहित्य और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी। संस्कृत की इस काल में विशेष उन्नति हुई और उसे राजभाषा का पद प्राप्त हुआ। पल्लव राजा सिंह विष्णु ने महाकवि भारवि को अपने दरबार में निमंत्रित किया था। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन् ने मत्तविलास प्रहसन नामक परिहाल नाटक लिखा। यह नाटक तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालता है। उन्होंने भागवदज्जुक भी लिखी। प्रसिद्ध विद्वान् डिन सम्भवतः नरसिंह वर्मन् द्वितीय की राज्य सभा की शोभा बढ़ाते थे। जिन्होंने दशकुमार चरित् की रचना की। मातृदेव भी पल्लवों के दरबार में थे।
कला- पल्लव काल स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशेष प्रगति का काल रहा है। इस काल में अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण किया गया। ये मन्दिर विशाल ठोस चट्टानों को काटकर बनाये गये। सर्वप्रथम त्रिचनापल्ली में दरी मन्दिरों का निर्माण किया गया। महाबलिपुरम् में रथ मन्दिरों का निर्माण कराया गया। महाबलिपुरम् में शोर मन्दिर जैसे विशाल और भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने महाबलिपुरम् में विशाल ठोस चट्टानों को काटकर मन्दिर बनाने की कला की आधारशिला रखी। ये मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला के सुन्दरतम नमूने हैं। बाराह मन्दिर में स्तम्भों वाला एक बरामदा है और ये स्तम्भ बैठे हुए शेर पर टिके हुए हैं। पल्लव कला की एक विशेषता गंगावतरण का दृश्य है जिसमें गंगा को देवताओं, पशुओं सहित पृथ्वी पर उतरते हुए दिखाया गया है। पल्लव काल में वास्तुकला की कई शैलियां प्रचलित हुई।
महेन्द्र शैली, पल्लव नरेश महेन्द्र प्रथम के शासन-काल और संरक्षण में जन्मी और विकसित पल्लव कला की एक महत्त्वपूर्ण शैली है। वास्तुकला की दृष्टि से महेन्द्र शैली का विकास तीन चरणों में हुआ- प्रथम चरण की शैली की विशिष्टता गुफा-मंडपों का निर्माण है। महेन्द्र वर्मन् ने तोण्डमंलम् में, शिलाओं को तराश कर गुफा-मंडपों के निर्माण की एक अपूर्व परम्परा का प्रवर्त्तन किया। इस चरण में विकसित महेन्द्र शैली के मंडप प्रायः सादे होते थे और उनके अद्धस्तम्भ ऊपर से नीचे तक एक ही प्रकार के हैं। मंडपों के अग्र भाग पर द्वारपालों का अकन किया गया है । इस शैली के अंतर्गत आने वाले मंडपों में मुक्तम का कल भडकम मंडप, वल्लभ का वृहत वसन्तेश्वर मंडप और तिरूचीरपल्ली का ललिताकुर पल्लवेश्वर गृह मंडप अधिक प्रसिद्ध हैं।
महेन्द्र शैली का दूसरा चरण, महेन्द्र वर्मन् की मृत्यु के बाद विकसित हुआ। इस चरण के अन्तर्गत नरसिंह वर्मन् प्रथम मामल्ल, परमेश्वर वर्मन् प्रथम और नरसिंह वर्मन् द्वितीय राजसिंह द्वारा निर्मित मंडप आते हैं। इस चरण की शैलीगत विशेषताएं सामान्यत: प्रथम चरण के अनुरूप हैं। केवल स्तम्भों की बनावट में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। स्तम्भ पहले की अपेक्षा अधिक ऊँचे और पतले हैं। इस चरण के मंडपों में मुख्य हैं- तिरुक्लुक्करनम् का ओरूकुल मंडप, महाबलिपुरम् का कोकिल मंडप, महाबलिपुरम् का धर्मराज मंडप सिलुवंगकुप्पम का अतिरण चंड का मंडप। महेन्द्र शैली के तीसरे चरण के मंडप पूर्ववर्ती मंडपों से कई दृष्टियों से भिन्न हैं। इस चरण के मंडपों में किलमाविलंगै का विष्णु मंडप, वल्लभ के शिव और विष्णु मन्दिर उल्लेखनीय हैं।
पल्लव स्थापत्य कला की अन्य प्रमुख शैली मामल्ज शैली है। इसके अन्तर्गत दो शैलियाँ आती हैं- मंडप और रथ। मामल्ल शैली के मंडप महेन्द्र शैली की अपेक्षा अधिक अलंकृत और परिष्कृत हैं। इस शैली के सभी मंडप महाबलीपुरम् में हैं। मामल्ल शैली के मंडप अपनी मूर्ति सम्पदा के लिए सुविश्रुत हैं। मामल्ल शैली के अन्तर्गत आने वाले मंडपों में आदि वराह मंडप, रामानुज मंडप और महिषमर्दिनी मंडप। मामल्ल शैली के अन्तर्गत ही सिंहाधार स्तम्भों की रचना हुई। मामल्ल शैली की सर्वोत्कृष्ट विशिष्टता एकाश्मक रथों का निर्माण है। इसके अनुसार प्रकृत शिला के अनावश्यक अंश को निकाल कर रथ का अपेक्षित स्वरूप उत्कीर्ण करने की परम्परा मामल्ल शैली में ही विकसित हुई। इस शैली में निर्मित रथ आज भी पल्लव कला की उपलब्धियों के मूक साक्षी के रूप में विद्यमान हैं।
महेन्द्रवर्मन् शैली- इस शैली में मंदिर सादे बने हुए थे।
  • बरामदे स्तम्भयुक्त होते थे।
  • अंदर में दो-तीन कमरे बने हुए थे।
  • इस शैली में स्तंभ एवं मंडप का प्रयोग किया जाता था।
मामल्ल शैली या नरसिंहवर्मन् शैली- इस शैली में मंडप एवं रथ का प्रयोग हुआ।
  • मंडप शैली के उदाहरण हैं- वाराहमंदिर, महिषमंदिर, पंचपांडवमंदिर।
  • रथ शैली के उदाहरण है- सप्तपैगोडा मंदिर।
राजसिंह शैली- इस शैली में स्वतंत्र रूप से मंदिर बनाए जाते थे।
  • महाबलिपुरम् का तटीय मंदिर स्वतंत्र मंदिर के उदाहरण हैं।
  • इसके अतिरिक्त कांचीपुरम का कैलाश मंदिर एवं बैकुण्ठ पेरुमल मंदिर भी इसके उदाहरण हैं।
नन्दीवर्मन् शैली- वस्तुत: यह काल पल्लव वास्तुकला शैली के अवसान को रेखांकित करता है।
  • इस शैली में मंदिर छोटे-छोटे आकार के होते थे।
  • मुक्तेश्वर मंदिर और मांग्तेश्वर मंदिर इसके उदाहरण हैं।
  • एक अन्य उदाहरण गुड्डीमालम का परशुरामेश्वर मंदिर है।
पल्लव शासन-पद्धति- पल्लव शासन पद्धति में प्रशासन का केन्द्र बिन्दु राजा था। राजा भारी-भरकम उपाधि लेते थे जैसे अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध यज्ञी राजा को प्रशासन में सहायता और परामर्श देने के लिए मंत्री होते थे। प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य विभिन्न भागों में विभाजित था जिसका प्रशासन चलाने के लिए अधिकारी नियुक्त थे। साम्राज्य का विभाजन राष्ट्रों (प्रान्त) में किया गया और राष्ट्र के प्रमुख अधिकारी को विषयिक कहा जाता था। राष्ट्र कोट्टम में विभाजित था जिसके अधिकारी को देशांतिक कहा जाता था। सम्राट् का एक निजी मंत्री (प्राइवेट सेक्रेटरी) हुआ करता था जो उसके आदेशों को लिखा करता था और उनकी घोषणा करता था। राजकीय कर एकत्र करने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त थे जिन्हें मण्डपी कहते थे और वह स्थान जहां कर जमा होता था, उसे, मंडप कहते थे। राजा निम्नलिखित अधिकारियों की सहायता से प्रशासन का संचालन करता था-
मंत्रिपरिषद्- (रहस्यदिकदास), अमात्य, महादंडनायक, जिलाधिकारी-(रतिक), ग्राम मुखिया (ग्राम भोजक), युवराज, महासेनापति, गौल्मिक, चुंगी अधिकारी-मंडवस।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्रामवासियों को ग्राम का प्रशासन चलाने में काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रत्येक ग्राम की एक ग्राम सभा होती थी। ग्राम सभा की उपसमितियां होती थीं जो उद्यान, मन्दिर, तालाब इत्यादि का प्रबन्ध करती थी। ग्राम सभाओं को सीमित स्थानीय न्याय-सम्बन्धी अधिकार भी प्राप्त थे। वे सार्वजनिक दानों का प्रबन्ध करती थीं। ग्राम की सीमाएँ साफ तौर पर निश्चित कर दी जाती थीं और किसान की भूमि का माप करके उसका रिकार्ड रखा जाता था। प्रशासनिक विभाजन-मंडल (राज्य)- राष्ट्रिक, नाडू (जिला)-देशातिक- कोट्टम (ग्राम समूह) इसके ऊपर कोई अधिकारी नहीं था।

राष्ट्रकूट वंश Rashtrakuta Dynasty

राष्ट्रकूट की उत्पत्ति और मूल निवास के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. फ्लीट का विचार है कि राष्ट्रकूट उत्तर के राठौरों के वंशज थे। इसके विपरीत बर्नेल का विचार है कि उनका सम्बन्ध आन्ध्र प्रदेश के द्रविड़ रेड्डियों से है। रेड्डी शब्द राष्ट्र का अपभ्रंश है और इस प्रकार राष्ट्रकूट रेड्डियों के वंशज हैं। इन दोनों मतों को अधिक मान्यता प्राप्त नहीं है।
एक अन्य सम्भावना यह है कि राष्ट्रकूट मान्यखेट के राष्ट्रिकों या राठिकों के वंशज थे। राष्ट्रिकों का वर्णन अशोक के अभिलेख में भी मिलता है। राष्ट्रकूटों की भाषा कन्नड़ थी और इन्होंने कन्नड भाषा को राजाश्रय प्रदान किया। कई अभिलेखों में उन्हें लट्टलूरपुर-वराधीश अर्थात् सुन्दर नगर लातूर का स्वामी कहा गया है। लातूर निजाम की रियासत का एक छोटा सा नगर था। कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि मान्यखेट के राष्ट्रकूट महाराष्ट्र के निवासी थे। राष्ट्रकूटों ने यह भी दावा किया कि वे महाभारत काल के यदुवंशी कृष्ण के वंशज हैं।
नर्मदा नदी के दक्षिण में एक शक्तिशाली राज्य का उदय हुआ जिसके राजा राष्ट्रकूट कहलाये। राष्ट्रकूट राजा पहले चालुक्यों के सामन्त थे। राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। मान्यखेट के राष्ट्रकूटों का महत्त्वपूर्ण काल दन्तिदुर्ग के शासन-काल से ही प्रारम्भ हुआ। उसने 8वीं शताब्दी के मध्य चालुक्य-शक्ति का अन्त करके अपनी शक्ति का विस्तार किया। उसने कांची के पल्लवराज, कंलिगराज, कौशलराज, मालव (उज्जैन का गुर्जर-प्रतिहार नरेश), लाट (दक्षिण गुजरात) और श्री शैल (कर्नूल जिला) के राजाओं को पराजित किया। उसने उज्जैन में हिरण्यगर्भ यज्ञ किया। जिसमें प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का कार्य किया। दन्तिदुर्ग ने महाराजाधिराजपरमेश्वर और परमभट्टारक की उपाधियाँ धारण की। दन्तिदुर्ग ने अरब आक्रमण को विफल बनाया जिसके बाद चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने उसे पृथ्वी वल्लभ की उपाधि दी।
दन्तिदुर्ग के कोई पुत्र नहीं था। उसके बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम 758 ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ। कृष्ण प्रथम ने चालुक्य शक्ति को, जिसका विनाश दन्तिदुर्ग ने किया था, पूर्णरूपेण पराजित किया। उसने अपने पुत्र गोविन्द द्वितीय को एक सेना के साथ वेगी के चालुक्य राजा पर आक्रमण करने भेजा। वेंगी के चालुक्य राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया। कृष्ण प्रथम (758-773 ई.) एक महान् विजेता ही नहीं, एक महान् निर्माता भी था। एलोरा में ठोस चट्टान को कटवाकर उसने शिव मन्दिर (कैलाशनाथ) का निर्माण कराया। उसने राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि ली।
कृष्ण प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र गोविन्द द्वितीय शासक बना। वह विलासी था और उसके छोटे भाई ध्रुव ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। ध्रुव ने पल्लव नरेश दन्ति वर्मन् को पराजित किया। ध्रुव गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज और पाल राजा धर्मपाल का समकालीन था। ध्रुव ने अपनी सैनिक गतिविधियां उत्तर भारत तक बढ़ा दी। उसने वत्सराज और धर्मपाल दोनों को युद्ध में पराजित किया। इन विजयों के फलस्वरूप यद्यपि राष्ट्रकूट साम्राज्य की सीमा में वृद्धि नहीं हुई, परन्तु इससे ध्रुव की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई और गंगा-यमुना के दोआब में राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए राष्ट्रकूटों, पालों और प्रतिहारों में पारस्परिक संघर्ष प्रारम्भ हो गया। ध्रुव ने निरूपम, कालीवल्लभ और धारावर्ष की उपाधि ली।
राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय (793-814 ई.)
ध्रुव ने अपने शासनकाल में अपने तृतीय पुत्र गोविन्द को युवराज घोषित कर दिया था। 793 ईं में ध्रुव के पश्चात् गोविन्द तृतीय राजा बना। परन्तु उसके सिंहासन पर अधिकार को, उसके भाई स्तम्भ ने जो गंगवाड़ी का राज्यपाल था, चुनौती दी। उसने बारह राजाओं का संघ बनाया और गोविन्द तृतीय के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। गोविन्द तृतीय ने स्तम्भ को राजाओं के संघ के साथ पराजित कर दिया। परन्तु गोविन्द तृतीय ने अपने शत्रुओं के प्रति उदारता का परिचय दिया। उसने अपने भाई स्तम्भ को गंगावाड़ी का पुनः राज्यपाल बनाया। मालवा को जीतकर उसने उपेन्द्र नामक व्यक्ति को शासक नियुक्त किया।
गोविन्द तृतीय ध्रुव के समन ही एक महँ विजेता था। उसने पूर्ण तैयारी के साथ उत्तरी भारत पर आक्रमण किया। वह भोपाल और झाँसी के मार्ग से आगे बाधा। गुर्जर राजा नाग्भात्त द्वितीय ने उसका सामना किया। नागभट्ट द्वितीय पराजित हुआ और युद्धस्थल से भाग गया। गोविन्द तृतीय कन्नौज की ओर बढ़ा। कन्नौज के राजा चक्रयुद्ध ने उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बंगाल के राजा धर्मपाल ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। मालवा के शासक ने गोविन्द की अधीनता स्वीकार कर ली। गोविन्द तृतीय ने गुजरात पर विजय प्राप्त की और वहां का राज्य अपने भाई इन्द्रराज को सौंप दिया।
जब गोविन्द तृतीय उत्तर भारत के विजय अभियान पर था, तब गंग, केरल, पाण्ड्य और पल्लव राजाओं ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा। गोविन्द तृतीय ने उत्तर भारत के विजय अभियान से लौटकर इन्हें करारी पराजय दी। गोविन्द तृतीय के विजय अभियानों की जानकारी से लंका का राजा भयभीत हो गया और उसने गोविन्द तृतीय की अधीनता स्वीकार कर ली।
अमोघवर्ष (814-878 ई.)- गोविन्द तृतीय की मृत्यु के पश्चात् अमोघवर्ष सिंहासन पर बैठा। उसने नई राजधानी मान्यखेत की स्थापना की। राज्याभिषेक के समय उसकी आयु 12 वर्ष थी। उसकी अल्पावस्था का लाभ उसके विरोधियों ने उठाया। सामन्तों ने विद्रोह कर दिया। मंगवाड़ी के शासक ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। वेंगी के राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने बदला लेने के लिए राष्ट्रकूट साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। अमोघवर्ष को सिंहासन से हाथ धोना पड़ा। कुछ समय पश्चात् उसने पुनः सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
अमोघवर्ष साहित्य प्रेमी और विद्वानों का आश्रयदाता था। अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में कविराज मार्ग की रचना की। उसने जिनसेन (लेखक-आदिपुराण) महावीराचार्य और शकतायन को राज्य संरक्षण प्रदान किया।
कृष्ण द्वितीय (878-914 ई.)- अमोघवर्ष के पश्चात् उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय राजा बना। उसे अपने पड़ोसी राज्यों से लगातार संघर्ष करना पड़ा। उसके महत्त्वपूर्ण युद्ध प्रतिहारों और चालुक्यों के साथ हुए।
कृष्ण द्वितीय के उत्तराधिकारी- कृष्ण द्वितीय के पश्चात् उसका पौत्र इन्द्र तृतीय (914-922 ई.) शासक बना। उसने प्रतिहारों के साथ युद्ध किया। उसने कन्नौज पर भी आक्रमण किया और सफलता प्राप्त की।
इन्द्र तृतीय के पश्चात् अमोघवर्ष द्वितीय, गोविन्द चतुर्थ और अमोघवर्ष तृतीय शासक बने। कृष्ण तृतीय (939-968 ई.) राष्ट्रकूट वंश का महान् शासक हुआ है जिसका काल संघर्ष में व्यतीत हुआ। उसने अकालवर्ष की उपाधि ग्रहण की। उसने चोलों को करारी पराजय दी। वहां उसने एक देवालय एवं विजय-स्तंभ की स्थापना की। सुदूर दक्षिण में राज्यों पर विजय प्राप्त की। लंका के राजा को भी उसने अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया। कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुए और उस राज्य का शीघ्रता से पतन होने लगा। इस वंश के अन्तिम राजा कर्क को उसके एक सामन्त तैल या तैलप ने 973 ई. में गद्दी से उतार कर अपना अधिकार कर लिया। तैल ने कल्याणी के चालुक्य राजवंश की नींव डाली। अलमसूदी (1915-16 ई.) ने राष्ट्रकूट शासकों की बडी प्रशंसा की है और उसने इनकी तुलना विश्व के 4 शासकों से की है। तीन अन्य हैं- (1) बगदाद के खलीफा, (2) चीन और (3) कुस्तुनतुनिया के शासक।
राष्ट्रकूट-प्रशासन- राष्ट्रकूट काल में प्रशासन का केन्द्र-बिन्दु राजा था। सारे अधिकार राजा में निहित थे। वह परम भट्टारक, महाराजाधिराज की उपाधियां धारण करता था। राजा का पद वंशागत था और राजा की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र सिंहासन पर बैठता था, परन्तु कभी-कभी अपवाद भी होते थे, जैसे बड़े-भाई के होते हुए गोविन्द तृतीय को उसके पिता ने अपने जीवन-काल में ही राजा मनोनीत किया था। युवराज प्रशासन में राजा की सहायता करता था। राजकुमारों को आमतौर पर राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता था। प्रशासन में परामर्श और सहायता देने के लिए राजा मत्रियों की नियुक्ति करता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम-प्रमुख ग्राम का प्रशासन चलाता था। गांव में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना उसी का कार्य था। ग्राम में स्वच्छता, सिंचाई, शिक्षा, मन्दिरों और तालाबों की देख-रेख के लिए उपसमितियां होती थीं जो ग्राम प्रमुख की देखरेख में कार्य करती थीं।
राष्ट्रकूट शासक सेना के संगठन और ट्रेनिंग पर विशेष रूप से ध्यान देते थे। सेना स्थायी थी। सेना का एक बड़ा भाग राजधानी में रहता था।
धर्म- राष्ट्रकूट शासक शिव और विष्णु के उपासक थे। उनकी मुहरों पर विष्णु के वाहन गरुड़ अथवा योगमुद्रा में आसीन शिव के चित्र अंकित हैं। शासकों ने अनेक यज्ञ कराये जैसे दन्तिदुर्ग ने उज्जैन में हिरण्यगर्भ यज्ञ किया। एक ही मन्दिर में विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित की जाती थी, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश। हिन्दू-धर्म के अतिरिक्त जैन सम्प्रदाय के प्रति भी राष्ट्रकूट शासकों ने उदार दृष्टिकोण अपनाया। अमोघवर्ष प्रथम, इन्द्र द्वितीय, कृष्ण द्वितीय और इन्द्र तृतीय ने जैन-धर्म को संरक्षण प्रदान किया।
कला एवं साहित्य- कुछ राष्ट्रकूट शासकों ने कला के विकास में भी अपना योगदान दिया। कृष्ण प्रथम ने चट्टानों को कटवाकर एलोरा के विशाल कैलाश-मन्दिर का निर्माण करवाया जो कला की एक अद्भुत कृति है।
राष्ट्रकूट शासकों ने साहित्य को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। उन्होंने शिक्षण संस्थाओं के लिए प्रचुर मात्रा में दान दिया। उन्होंने कवियों और साहित्यकारों को अपने दरबार में राजाश्रय प्रदान किया। अमोघवर्ष ने काव्यशास्त्र पर कविराज मार्ग नामक पुस्तक की रचना की। उसके शासन-काल में शाक्तायन ने अमोघवृति की रचना की। पोन्ना ने शान्ति पुराण लिखा। पम्पा ने कृष्ण तृतीय के शासन-काल में भारत की रचना की। इस प्रकार राष्ट्रकूट काल में साहित्य के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई।

बंगाल का सेन-वंश Sen-dynasty of Bengal

सेन-वंश का मूल-सामन्तसेन को, जिसने बंगाल के सेन वंश की नीव डाली थी, कर्नाटक क्षत्रिय कहा गया है। इसमें सन्देह की गुंजाइश कम है कि सेनों का उद्भव दक्षिण में ही हुआ था और अवसर पाकर वे उत्तर भारत में चले आये तथा बंगाल में अपना राज्य स्थापित कर लिया। सेन वंश के लोग सम्भवत: ब्राह्मण थे किन्तु अपने सैनिक-कर्म के कारण वे बाद में क्षत्रिय कहे जाने लगे। इसलिए उन्हें ब्रह्म क्षत्रिय भी कहा गया है। पाल साम्राज्य के केन्द्रीय भग्नावशेष पर ही सेनों के राज्य की भित्ति खड़ी हुई।
विजयसेन (1095-1158 ई.)- सामन्तसेन का उत्तराधिकारी हेमन्त सेन था। वंश के संस्थापक सामन्तसेन के पौत्र विजयसेन ने अपने वंश के गौरव को बढ़ाया। उसने 64 वर्षों तक राज्य किया। विजय सेन ने बंगाल से वर्मनों को निकाल बाहर किया। उत्तरी बगाल से मदनपाल को निर्वासित करने वाला भी विजयसेन ही था। कहा जाता है कि उसने नेपाल, आसाम और कलिंग पर विजय प्राप्त की। रामपाल की मृत्यु के बाद, पाल साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर विजयसेन ने जिस राज्य की स्थापना की उसमें पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी बंगाल के भाग सम्मिलित थे। उसने परम माहेश्वर की उपाधि ग्रहण की जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि विजयसेन शैव था। सैन्य विजयों के साथ-साथ उसने सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य भी किये। उसने शिवमन्दिर का निर्माण कराया, एक झील खुदवाई, विजयपुर नामक नगर बसाया और उमापति को राज्याश्रय प्रदान किया। पूर्वी बंगाल में विक्रमपुर संभवत इस वंश की दूसरी राजधानी थी। इन्हीं उपलब्धियों के कारण विजयसेन को सेन वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
बल्लाल सेन (1158-1179 ई.) बल्लाल सेन एक विचित्र शासक था। बंगाल के ब्राह्मणों और अन्य ऊंची जातियों में उसे इस बात का श्रेय दिया गया है कि आधुनिक विभाजन उसी ने कराये थे। बल्लाल सेन ने वर्ण-धर्म की रक्षा के लिए उस वैवाहिक प्रथा का प्रचार किया जिसेकुलीन प्रथा कहा जाता है। प्रत्येक जाति में उप-विभाजन, उत्पत्ति की विशुद्धता और ज्ञान पर निर्भर करता था। आगे चलकर यह उप-विभाजन बड़ा कठोर और जटिल हो गया। बल्लाल सैन ने अपने पिता के राजस्व-काल में शासन-कार्य का संचालन किया था। वंशक्रमानुगत द्वारा उसे जो राज्य मिला, उसकी उसने पूर्ण रूप से रक्षा की। उसका राज्य पांच प्रान्तों में विभक्त था। उसकी तीन राजधानियाँ थीं- गौड़पुर, विक्रमपुर और सुवर्णग्राम। कहा जाता है कि बल्लाल सेन ने अपने गुरु की सहायता से दानसागर और अद्भुतसागर नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया। दूसरा ग्रन्थ वह अपूर्ण ही छोड़कर मर गया। परम माहेश्वर और निश्शकशकर आदि विरुदों से बल्लाल सेन के शैव होने का प्रमाण मिलता है।
लक्ष्मण सेन (1179-1205 ई.)- लक्ष्मण सेन अपने वंश का एक प्रसिद्ध शासक था, साथ ही साथ भारत के सबसे कायर नरेशों में भी उसकी गणना की जानी चाहिए। अभिलेखों में उसके लिए कहा गया है कि उसने कलिंग, आसाम, बनारस और इलाहाबाद पर विजय प्राप्त की और इन स्थानों पर उसने अपने विजय-स्तम्भ गाड़े थे। परन्तु अभिलेखों के इस कथन पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लक्ष्मण सेन प्रसिद्ध गहड़वाल नरेश जयचन्द्र का समसामयिक था जिसके अधिकार में बनारस और इलाहाबाद थे। अतएव इन स्थानों पर, लक्ष्मणसेन के द्वारा विजय-स्तम्भ गाड़े जाने की कल्पना बिल्कुल निराधार जान पड़ती है। सम्भव है कि उसने आसाम और कलिंग पर विजय प्राप्त की हो। किन्तु यदि मुस्लिम इतिहासकारों के कथन पर विश्वास किया जाय तो कहना पड़ेगा कि लक्ष्मणसेन नितान्त कायर था।
लक्ष्मण सेन का शासन संस्कृत साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उसकी राजसभा में पाच रत्न रहते थे, जिनके नाम थे- जयदेव (गीतगोविन्द के रचयिता), उमापतिधोयी (पवनदूत के रचयिता), हलायुध और श्रीधरदास। लक्ष्मण सेन ने स्वयं अपने पिता के अपूर्ण ग्रन्थअद्भुतसागर को पूरा किया। लक्ष्मण सेन के राज्य पर मुसलमानों का आक्रमण 1199 ई. में हुआ था। इसके बाद सेन राजवंश का अन्त हो गया, यद्यपि पूर्वी बंगाल पर उसके बाद तक इस वंश के राजा राज्य करते रहे।

बंगाल के पाल: 800-1200 ई. Pal of Bengal: 800-1200 AD.

आठवीं शती के मध्य में उत्तरी भारत में अन्य महत्त्वपूर्ण जिस साम्राज्य की स्थापना हुई उसका संस्थापन बंगाल के पालों द्वारा हुआ था।
इस वंश का इतिहास हमें निम्नलिखित साहित्य और उनके अभिलेखों से ज्ञात होता है। प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं:
  1. धर्मपाल का खालिमपुर अभिलेख
  2. देवपाल का मुंगेर अभिलेख
  3. नारायणपाल का बादल स्तंभ लेख
  4. महिपाल प्रथम का वाणगढ़ तथा मुजफ्फरपुर से प्राप्त अभिलेख इसके अतिरिक्त संध्याकर नदी के रामपालचरित से पाल वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
पहले बंगाल का प्रान्त मगध राज्य में सम्मिलित था। नन्दों के समय में भी बंगाल मगध साम्राज्य के अन्तर्गत था। मगध के राजसिंहासन पर बैठनेवाला सम्राट् बंगाल का भी स्वामी होता था। छठी शताब्दी के उत्तराद्ध में गौड़ अथवा बंगाल स्वतन्त्र हो गया और गुप्त-साम्राज्य से पृथक् हो गया। शशांक के समय में, जो हर्ष का समकालीन था, बंगाल की शक्ति काफी बढ़ गई। यद्यपि सम्राट् हर्ष और आसाम के भास्करवर्मन ने गौड़ाधिपति की शक्ति को रोकने का बहुत प्रयास किया और उसको युद्ध में पराजित करने की भी चेष्टा की तथापि उसके जीवन-काल में न तो वे उसकी शक्ति ही कम कर सके और न उसको कुछ क्षति ही पहुंचा सके। परन्तु शशांक की मृत्यु के बाद, बंगाल की राजनैतिक एकता और सार्वभौमिकता विनष्ट हो गई। अब सम्राट् हर्षवर्द्धन और कामरूपाधिपति भास्करवर्मन दोनों को अवसर प्राप्त हो गया और उन्होंने बंगाल पर आक्रमण करके इसकी सम्भवत: दो भागों में विभक्त कर दिया, जिनको उन्होंने आपस में बांट लिया। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शैल वंश के एक राजा ने पोण्ड या उत्तरी बंगाल पर अधिकार कर लिया। कश्मीर-नरेश ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज-नरेश यशोवर्मन ने भी बंगाल पर आक्रमण किया था। मगध के अनुवर्ती गुप्त नरेश का बंगाल पर अधिकार था किन्तु यह अधिकार नाममात्र को ही था। किन्तु इस नरेश के हट जाने पर यह नाममात्र का अधिकार भी नहीं रह गया। कामरूप-नरेश हर्षदेव ने अवसर पाकर बंगाल को विजित कर लिया। एक दृढ़ शासन-शक्ति के अभाव में बंगाल अव्यवस्था और अराजकता का केन्द्र हो। गया। आक्रमणों के इस तांते ने बंगाल में चारों ओर अशान्ति एवं गड़बड़ी फैला दी जिससे ऊबकर सारे सरदारों और जनता ने मिलकर गोपाल नामक व्यक्ति को अपना राजा चुन लिया। गोपाल को सम्पूर्ण बंगाल का शासक स्वीकार कर लिया गया।
गोपाल- आठवीं शताब्दी के प्रथमाद्ध में गोपाल ने बंगाल का शासन संभाला। गोपाल ने बंगाल में हिमालय से लेकर समुद्र-तट तक सम्पूर्ण राज्य को सुसंगठित किया और विगत डेढ़ शताब्दियों की अराजकता और अव्यवस्था का अन्त करके समस्त बंगाल में शान्ति स्थापित की। उसने नालन्दा के निकट ओदन्तपुरी नामक स्थान पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना कराई। गोपाल ने अपनी मृत्यु (770 ई.) के समय अपने उत्तराधिकारी के लिए एक समृद्ध और सुशासित राज्य छोड़ा। उसके उत्तराधिकारियों ने बंगाल को राजनैतिक उत्कर्ष और सांस्कृतिक गौरव की उस पराकाष्ठा पर पहुँचाया जिसकी उसने पहले कभी स्वप्न में भी कल्पना न की होगी। धर्मपाल के खालिमपुर अभिलेख में कहा गया है कि मत्स्य न्याय से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों (सामान्य जनता) ने गोपाल को लक्ष्मी की बाँह ग्रहण करवायी। गोपाल के बाद धर्मपाल बंगाल का राजा हुआ।
धर्मपाल- धर्मपाल पाल वंश की वास्तविक महत्ता का संस्थापक था। धर्मपाल एक सुयोग्य और कर्मनिष्ठ शासक था जिसने अपने राज्य की सीमा सोन नदी के पश्चिम तक बढ़ा दी। धर्मपाल धार्मिक मनोवृत्ति का था और अपने पिता की भांति बौद्ध था, फिर भी राजनैतिक दृष्टि से वह भी महत्वाकांक्षी था। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा है कि धर्मपाल के राज्य का विस्तार पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में जालंधर और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक था। सम्भव है कि तारानाथ का यह कथन अत्युक्तिपूर्ण हो परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि समस्त उत्तरी भारत में धर्मपाल की शक्ति का प्रभाव जमा हुआ था। 11वीं सदी के गुजराती कवि सोड्डल ने धर्मपाल कोउत्तरापथस्वामी कहा है। उसने महाराजाधिराजपरमेश्वर और परम भट्टारक की उपाधियाँ धारण की। वह एक उत्साही बौद्ध था और उसे परमसौगत कहा गया है।
धर्मपाल ने लगभग 46 वर्षों तक राज्य किया। उसने विक्रमशिला और सोमपुर में बौद्ध विहारों का निर्माण कराया। विक्रमशिला में एक विश्वविद्यालय की स्थापना भी उसने कराई थी। विक्रमशिला में भी नालन्दा की भांति विद्या का एक बहुत बडा केन्द्र स्थापित हो गया था। धर्मपाल ने अपने राज्य में अन्य कई मन्दिरों और बौद्ध विहारों का निर्माण भी कराया था। उसकी राज्यसभा में प्रसिद्ध बौद्ध लेखक हरिभद्ररहता था। उसके समय प्रसिद्ध यात्री सुलेमान आया था। उसके समय में धीमन और विटपाल ने एक नए कला संप्रदाय का प्रवर्त्तन किया। धर्मपाल का 810 ई. में शरीरान्त हो गया।
देवपाल- पाल वंश का देवपाल तृतीय राजा था। अपने वंश का यह एक शक्तिशाली राजा था। उसने अड्तालीस वर्षों तक राज्य किया और कदाचित् मुद्गगिरि (मुंगेर) को अपनी राजधानी बनाया। उसके सेनापति लवसेन ने आसाम और उड़ीसा पर विजय प्राप्त की। देवपाल ने अपने पिता की प्रसार-नीति को जारी रखा। अपने अभिलेखों में वह एक साम्राज्यवादी के रूप में मुखरित हुआ है। यह सम्भव है कि देवपाल ने राष्ट्रकूट-नरेश गोविन्द-तृतीय की मृत्यु से लाभ उठाया। गोविन्द-तृतीय के देहावसान से राष्ट्रकूट राज्य में गड़बड़ फैल गई जिससे देवपाल को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। उसके अभिलेखों में उसकी सुदूरव्यापिनी विजयों का उल्लेख किया गया है। एक अभिलेख में कहा गया है कि वह हिमालय और विन्ध्याचल के मध्यवर्ती सम्पूर्ण प्रदेश का स्वामी था और दक्षिण में उसने सेतुबन्ध रामेश्वरम् तक विजय प्राप्त की। परन्तु स्पष्ट है कि अभिलेख का यह कथन केवल प्रशस्तिवादन है और ऐतिहासिक तथ्य से नितान्त दूर है। एक अन्य स्तम्भ-लेख में यह उल्लेख मिलता है कि अपने मन्त्रियों दर्भपाणि तथा केदार मिश्र की नीतियुक्त मंत्रणा से प्रेरित होकर देवपाल ने उत्कल जाति को मिटा दिया, हूण का दर्प चूर कर दिया और द्रविड़ तथा गुर्जर के राजाओं का गर्व धूलधुसरित कर दिया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी का मत है कि- बादल स्तम्भ-लेख का यह कथन सम्भवतः सही है। देवपाल के पिता धर्मपाल ने केवल थोडे ही दिनों तक सम्राट् के रूप में शासन किया, किन्तु देवपाल ने कुछ अधिक काल तक अपनी सम्राटोचित सत्ता प्रमाणित की। उड़ीसा और आसाम पर उसका अधिकार हो जाने से उसका राज्य काफी विस्तृत हो गया। समकालीन नरेशों के बीच देवपाल की प्रतिष्ठा काफी जम गई, किन्तु प्रतिहार-नरेश मिहिरभोज के राज्यारोहण से गुर्जरों की साम्राज्यवादिता का उदय हुआ जो महेन्द्रपाल की मृत्यु तक बनी रही। इस प्रबल साम्राज्यवादिता के सामने बंगाल के पालों की कुछ न चल सकी और उनको अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षायें त्यागनी पड़ीं। कुछ विद्वानों का मत है कि बादल स्तम्भ-लेख में गुर्जर के राजा का गर्व चूर्ण करने का जो उल्लेख प्राप्त है, वह सम्भवत: गुर्जर नरेश मिहिरभोज के लिए है। यदि यह मत ठीक हो तो यह मानना पड़ेगा कि देवपाल के समय में पालों की शक्ति का ह्रास नहीं हुआ था किन्तु उसके उत्तराधिकारियों के शासन-काल में उसके वंश की राजनैतिक शक्ति निस्सन्देह घटने लगी थी। देवपाल का सुमात्रा और जावा के नरेश के साथ दौत्य सम्बन्ध (Diplomatic Relation) था। देवपाल के समय में बंगाल निश्चय ही एक शक्तिशाली राज्य था।
अपने पिता की भाँति देवपाल भी एक उत्साही बौद्ध था। उसे भी परमसौगत कहा गया है। नालन्दा ताम्रपत्रों से विदित होता है कि शैलेन्द्र वंश के शासक बापुत्रदेव के अनुरोध पर देवपाल ने राजगृह-विषय में चार और गया-विषय में एक गांव धर्मार्थ दान दिये थे। उसने सुमात्रा के नरेश बलपुत्रदेव को नालन्दा के समीप एक बौद्ध विहार बनवाने की अनुमति प्रदान कर दी थी और स्वयं भी इस कार्य के लिए प्रचुर धन दान किया था। देवपाल के लम्बे शासन-काल से बंगाल में एक विशिष्ट संस्कृति के विकास को संरक्षण मिला। देवपाल ने मगध की बौद्ध प्रतिमाओं का पुनर्निर्माण कराया और उसके राज-आश्रय ने वास्तु तथा अन्य कलाओं को पनपने का अवसर प्रदान किया। बोधिगया अथवा महाबोधि के मन्दिर के निर्माण में भी देवपाल का योग था। वह विद्या का उदार संरक्षक था और उसकी राजसभा बौद्ध विद्वानों के लिए एक आश्रय-स्थल के रूप में हो गई। बौद्ध कवि दत्त उसकी राजसभा में रहता था और उसने लोकेश्वर शतक नामक सुप्रसिद्ध काव्य की रचना की थी, जिसमें लोकेश्वर का विस्तारपूर्वक  वर्णन हुआ है और लोकेश्वर अथवा अवलोकेश्वर के प्रेम और क्षमा आदि गुणों की स्तुति है। उसने नगरहार के प्रसिद्ध विद्वान् वीरदेव को सम्मान दिया और उसे नालंदा विहार का अध्यक्ष बनवाया। देवपाल की राजसभा में मलाया के, शैलेन्द्र वंशीय शासक बालपुत्र देव ने अपना एक दूत भेजा था। देवपाल के समय वास्तुकला की अच्छी उन्नति हुई। डॉ. मजूमदार के शब्दों में धर्मपाल और देवपाल का शासन-काल बंगाल के इतिहास में एक उत्कृष्ट अध्याय था।
नारायण पाल- देवपाल के बाद बंगाल के राज्य पर कई छोटे-छोटे राजाओं ने राज्य किया परन्तु उनके शासन की अवधि बहुत अल्प थी। नारायण पाल अपने वंश का एक शक्तिशाली नरेश था, जिसने कम से कम 54 वर्ष राज्य किया। अपने पूर्वजों के विपरीत नारायण पाल शैव धर्म का अनुयायी था और उसने बाहर से शैव संन्यासियों को अपने राज्य में आमन्त्रित किया था। अपने शासन-काल के प्रारम्भिक वर्षों में नारायण पाल ने शिव के एक हजार मन्दिरों का निर्माण कराया और उनका प्रबन्ध उसने इन पाशुपत आचार्यों के सुपुर्द कर दिया। इन आचार्यों को उसने दान में गांव भी दिये। पहले कुछ दिनों तक नारायण पाल का मगध पर अधिकार बना रहा किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में मगध प्रतिहारों के राज्य में चला गया। 900 ई. में नारायण पाल का शरीरान्त हो गया।
महीपाल-प्रथम- नारायण पाल के बाद उसका पुत्र राज्यपाल शासनाधिकारी हुआ किन्तु उसके समय में गुर्जर-पाल-संघर्ष में पालों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। गोपाल-द्वितीय और विग्रहपाल-द्वितीय (935-992) के समय में पालों की शक्ति कुछ अंशों में बढ़ गई। राज्यपाल के समय में काम्बोज नामक पर्वतीय लोगों ने बंगाल के कुछ भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था किन्तु महीपाल (990-1030) ने काम्बोजों को निकाल बाहर किया। महीपाल-प्रथम ने पर्याप्त अंशों तक अपनी विचलितकुललक्ष्मी का स्तम्भन किया। अपने राज्यारोहण के ही वर्ष उसने सम्पूर्ण मगध, तीरभुक्ति और पूर्वीय बंगाल को विजित किया। महीपाल-प्रथम के राज्य-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी चोलों का आक्रमण। राजेन्द्र चोल के एक सेनानायक ने उड़ीसा के मार्ग से होकर बंगाल पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण का महीपाल-प्रथम ने सामना किया, परन्तु चोल सेना ने उसे पराजित कर दिया। फिर भी पाल नरेश ने उसे गंगापार न बढ़ने दिया। इस पराजय के द्वारा पाल साम्राज्य को क्षति अवश्य ही पहुंची होगी। इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि महीपाल प्रथम के शासन-काल के उत्तराद्ध में उसके राज्य की सीमायें संकुचित हो गई थीं।
बंगाल के शासकों में महीपाल काफी प्रसिद्ध है। आज भी उसकी प्रशंसा में गीत गाये जाते हैं और उल्लेखनीय बात तो यह है कि ये गीत लोकप्रिय भी हैं। उसके राजस्व-काल में बंगाल का राज्य समृद्ध था। कला की उन्नति हुई तथा इसका रूप सुधर गया। मूर्ति-कला को एक अभिनव भंगिमा तथा मुद्रा प्राप्त हो। गई। नालन्दा के विशाल बुद्ध-मन्दिर का पुनर्निर्माण महीपाल-प्रथम के शासन के 11वें वर्ष में कराया गया था। बनारस के बौद्ध मन्दिरों की, उसके सम्बन्धियों, स्थिरपाल और बसन्तपाल ने मरम्मत कराई थी। महीपाल-प्रथम के ही समग्र शासन में मगध से धर्मपाल तथा अन्य धर्माचार्यों ने आमंत्रण मिलने पर तिब्बत की यात्रा की थी और वहाँ पर उन्होंने बौद्ध धर्म को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयत्न किया। अपनी उपलब्धियों के कारण महिपाल प्रथम, पाल साम्राज्य का दूसरा संस्थापक माना जाता है। महीपाल के सुदीर्घ-कालीन शासन के उपरान्त नयपाल पाल वंश के राज्य का स्वामी हुआ।
नयपाल- बहुत थोड़े ही समय तक नयपाल को राज्य करने का अवसर में हिन्दुओं का तीर्थस्थान गया एक भव्य और शानदार नगर के रूप में हो गया। गया जिले के शासक विश्वरूप ने नयपाल के शासन के पन्द्रहवें वर्ष में विष्णु के पदचिन्हों के निकट कई मंदिर बनवाए। नेपाल के शासन के अंतिम दिनों में मगध पर विख्यात चेदी नरेश कर्ण ने आक्रमण कर दिया।
नायपाल के बाद 1055 ईं में उसका पुत्र विग्रहपाल-तृतीय राजा हुआ। विग्रहपाल-तृतीय यद्यपि एक बौद्ध श्रद्धालु था तथापि उसने सूर्यग्रहण अठाव चंद्रग्रहण के अवसर पे एक बार गंगा में स्नान किया और सामवेद के पंडित ब्राह्मण को एक ग्राम दान में दिया। इसी नरेश के समय में चालुक्य राजा
विक्रमादित्य ने बंगाल और आसाम पर चढ़ाई की। विग्रहपाल-तृतीय के समय में पाल साम्राज्य हासोन्मुख हो चला था। उसकी मृत्यु ने उसके राज्य की स्थिति को और अधिक जटिल कर दिया।
विग्रहपाल-तृतीय के उत्तराधिकारी- विग्रहपाल-तृतीय की मृत्यु के बाद बंगाल में गृहयुद्ध छिड़ गया। उसके तीन पुत्र थे, महीपाल-द्वितीय, सूरपाल और रामपाल। महीपाल-द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ और उसने अपने भाइयों सूरपाल तथा रामपाल को बन्दी बना लिया। कैवर्त नामक एक कबीले ने महीपाल के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया और उसे निकाल बाहर कर दिया। विद्रोहियों के साथ लड़ते हुए महीपाल रणभूमि में मारा गया। अब सूरपाल सिंहासन का अधिकारी हुआ, किन्तु उसके समय में भी अनेक सामन्तों ने विद्रोह कर दिया। अपने भाइयों में रामपाल सबसे अधिक पराक्रमी और योग्य निकला। रामपाल ने अपने वश के समर्थकों की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर लिया और कैवर्त नामक विद्रोही कबीले को पराजित किया। अपनी विजय-स्मृति को स्थायी बनाने के लिए रामपाल ने रामवती नामक नगरी की स्थापना की।
रामपाल को इस बात का श्रेय प्रदान किया गया है कि उसने आसाम तथा अन्य राज्यों पर भी विजय प्राप्त की। सान्ध्यक कारनन्दी नेरामपालचरित् नामक ग्रन्थ में रामपाल के जीवन-चरित का वर्णन किया है। रामपाल ने उत्तरी बंगाल पर भी विजय प्राप्त की और कलिंग पर आक्रमण किया। इन विजयों से पाल साम्राज्य की स्थिति कुछ सुधर गई परन्तु शीघ्र ही फिर साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया वेगवती हो गयी। लगभग 1120 ई. में रामपाल का देहान्त हो गया। अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त कुमारपाल सिंहासन पर बैठा। इसके उपरान्त क्रमशः गोपाल तृतीय, मदन लाल तथा गोविन्दपाल सिंहासन पर बैठे। गोविन्दपाल पाल राजवंश का अन्तिम शासक था। उसकी मृत्यु के साथ पाल राजवंश का अन्त हो गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के शब्दों में- इस प्रकार भाग्य के उलट-फेर के साथ बिहार और बंगाल पर 400 वर्षों तक शासन करने के उपरान्त पाल नरेश ऐतिहासिक मंच से अलग हो गए।
पाल साम्राज्य का पतन- पाल साम्राज्य की स्थिति रामपाल के बाद और अधिक डावांडोल हो गई। उसके पुत्र कुमारपाल के समय में आसाम स्वतन्त्र हो गया। उसका पुत्र गोपाल-तृतीय मदनपाल के द्वारा मार डाला गया। मदनपाल का अधिकार दक्षिणी बिहार-पटना और मुंगेर तक विस्तृत था। उसके पश्चात् गोविन्दपाल शासक हुआ जिसका अधिकार केवल गया तक सीमित रह गया। गोविन्दपाल गहड़वालों और सेनों के बीच घिर गया। दोनों ओर से घिर जाने पर पाल साम्राज्य की स्थिति बड़ी ही शोचनीय हो गई। पाल नरेश नाममात्र को ही राजा रह गये। सेन वंश के उत्कर्ष, सामन्तों के विद्रोह और परवर्ती पाल नरेशों की अयोग्यता के कारण पालों के साम्राज्य का पतन हो गया।
पाल शासन का महत्त्व- भारत के उन राजवंशों के इतिहास में पाल वंश का शासन-काल काफी महत्त्वपूर्ण है जिन्होंने सबसे अधिक दिनों तक राज्य किया। पाल नरेशों ने चार शताब्दियों तक बंगाल के राज्य पर शासन किया। धर्मपाल और देवपाल के शासन-काल का समय एक शताब्दी से अधिक था। उन्होंने इस सुदीर्घकालीन शान में बंगाल को उत्तर भारत के सबसे अधिक शक्तिशाली राज्यों में से एक बना दिया। साम्राज्य सत्ता के लिए उत्तर भारत में जिन तीन राजनैतिक शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ उसमें से एक शक्ति पालों की भी थी। धर्मपाल और देवपाल के उत्तराधिकारियों के समय में यद्यपि पालों की शक्ति वैसी नहीं रही तथापि उनका राज्य इस समय भी उपेक्षित नहीं था। जिस समय पाल-साम्राज्य अपने उत्कर्ष की स्थिति में नहीं था उस समय भी इसका प्रभाव दूर-दूर तक के प्रान्तों के अधीन रहा।
पर पालों का शासन राजनैतिक दृष्टिकोण की अपेक्षा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रोफेसर एन.एन. घोष के शब्दों में- पाल शासन के अन्तर्गत न केवल बंगाल की गणना सबसे बढ़ी-चढ़ी शक्तियों में की जाने लगी, अपितु वह बौद्धिक और कला-सम्बन्धी क्षेत्रों में उत्कृष्ट हो गया। प्रसिद्ध चित्रकार, शिल्पी एवं कांस्य की प्रतिमा गढ़ने वाले धीमान् और वित्पाल पाल साम्राज्य में ही राज्याश्रय पाकर अपनी कला के निर्माण में संलग्न रहे।
कला के क्षेत्र में पाल नरेशों का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनके शासन-काल में विकसित होने वाली कला-परम्परा की जीवनी-शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इसका प्रभाव भारत के बाहर दक्षिण-पूर्वी देशों में भी पहुंचा। नवीं शताब्दी में धीमान् और उसके पुत्र वित्पाल ने चित्रकला की जिस परम्परा को जन्म दिया, वह ग्यारहवीं शताब्दी में भी जारी रही। यद्यपि पाल युग की बौद्ध कला में ह्रास के कुछ लक्षण अवश्य विद्यमान हैं तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय बौद्ध धर्म की अन्तिम छ: शताब्दियां कलात्मक बन्ध्यापन का युग प्रस्तुत करती हैं। सारे बंगाल और बिहार में पाल नरेशों ने चैत्यों, बिहारों, मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया। अभाग्यवश उस काल की इमारत कोई बची न रह सकी परन्तु सरों और नहरों की एक बृहत् संख्या आज भी सुरक्षित है जिससे पाल राजाओं की निर्माण-सक्रियता का पता चलता है।
पालों की शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण देन थी। ओदन्तपुरी और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों की स्थापना पाल-नरेशों ने ही की थी। नालन्दा की भाँति इन विश्वविद्यालयों का यश भी देश के दूरवर्ती भागों तक फैला हुआ था और दूर-दूर के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहां आया करते थे। शिक्षा के संरक्षण और प्रसार में इन बौद्ध विश्वविद्यालयों का काफी महत्त्वपूर्ण योगदान था। दो-एक नरेशों को छोड़कर शेष सभी पाल नृपति बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को उस समय राज्याश्रय प्रदान किया जिस समय देश के अधिकांश क्षेत्रों में यह पतनोन्मुख था। पाल नरेशों ने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार का पूरा प्रयत्न किया परन्तु उनका धार्मिक दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वे ब्राह्मणों को भी दान-दक्षिणा देकर सम्मानित करते थे। बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अतीश नामक प्रसिद्ध दार्शनिक भिक्षु ने तिब्बत की यात्रा की थी। पालों के शासन-काल में साहित्य की उन्नति उतनी अधिक तो नहीं हुई जितनी की कला की किन्तु सन्ध्याकार नन्दी का रामपालचरित् नामक श्लेषात्मक महाकाव्य इसी समय लिखा गया। लोकेश्वर-शतक नामक काव्य की रचना बौद्ध कवि वज्रदत ने देवपाल के समय में की थी। इस प्रकार हम देखते है कि संस्कृत के संरक्षण और विकास की दृष्टि से पालों का शासन-काल काफी महत्त्वपूर्ण था। परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि पालों के ही शासन-काल में बौद्ध धर्म के उस विकृत रूप का विकास हुआ जिसने भारतवर्ष में बौद्ध धर्म के लोप को अवश्यम्भावी बना दिया। बौद्ध विहारों में वज्रयान और तान्त्रिक अभिचारादि के रूप में व्यभिचार, विलासिता तथा सुरा-सेवन आदि दुर्गुण प्रविष्ट हो गये। धर्मपालऔर अतिस दीपांकर जैसे विद्वान भी इसी काल में हुए।

त्रिपुरी के कलचुरी Kalchuri of Tripuri

जैजाकभुक्ति के चन्देलों के राज्य के दक्षिण में आ जबलपुर के निकट कलचुरि राजपूतों का राज्य था। अपने को कलचुरि लीग हैह्य वंश का क्षत्रिय बतलाते हैं। गुर्जर प्रतिहारों और बदामी के चालुक्यों के उत्ता ने के पूर्व बुन्देल्क्हंस से लेकर गुजराज और नासिक, तर्क, विशेषकर नर्मदा की उपरली घाटी में, कलचुरी लोग सबसे अधिक शक्तिशाली थे परन्तु हुर्जर-प्रतिहारों और चालुक्यों की शक्ति के उदय से कलचुरियों का प्रभाव दहल (वर्तमान जबलपुर के निकट तक सीमित रह गया। अब कलचुरी राज्य की राजधानी त्रिपुरी हो गई। इसलिए उनको चेदि, दहल अथवा त्रिपुरी के कलचुरि कहा जाने लगा। कलचुरि की एक शाखा गोरखपुर में भी स्थापित हुई थी।
कोक्कल-प्रथम (875-925)- कोक्कल-प्रथम कलचुरि वंश का संस्थापक तथा प्रथम ऐतिहासिक शासक था जिसने राष्ट्रकूटों और चन्देलों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित किये। प्रतिहारों के साथ कोक्कल-प्रथम का मैत्री-सम्बन्ध था। इस प्रकार उसने अपने समय के शक्तिशाली राज्यों के साथ मित्रता और विवाह द्वारा अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। कोक्कल-प्रथम अपने समय के प्रसिद्ध योद्धाओं और विजेताओं में से एक था। कलचुरि अभिलेखों में कोक्कल को अनेक विजयों का गौरव प्रदान किया गया है, परन्तु जैसा कि पीछे कहा जा चुका हम इस युग के अभिलेखों में उल्लिखित सभी बातों को ऐतिहासिक सत्य रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। अतएव कलचुरि अभिलेखों के आधार पर कोक्कल को अपने समय का सबसे महान् विजेता नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस बात में सन्देह नहीं कि कोक्कल पराक्रमी एवं साहसी विजेता था और उसने अपनी विजयों द्वारा एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की।
एक अभिलेख से पता चलता है कि कोक्कल-प्रथम ने अपने राष्ट्रकूट जामाता को वेंगी के विनयादित्य-तृतीय (पूर्व चालुक्यराज) के विरुद्ध आश्रय तथा सहायता प्रदान की। एक अन्य अभिलेख से यह ध्वनित होता है कि कोक्कल ने भोज-प्रथम को सुरक्षा प्रदान कर, प्रतिहार नरेश महीपाल से शत्रुता कर ली, परन्तु भोज-प्रथम उसका मित्र हो गया। कोक्कल को अभिलेखों में सारी पृथ्वी का विजेता तथा अपने समकालीन नरेशों का कोषहर्ता कहा गया है जो स्पष्टतया प्रशस्तिमात्र है। अपने शासन-काल के अन्तिम समय में कोक्कल ने उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया और पूर्वी चालुक्यों तथा प्रतिहारों के विरुद्ध राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण-द्वितीय को सहायता प्रदान की। कोक्कल ने अपनी विजयों के द्वारा जिस राज्य की स्थापना की, उसमें उसकी मृत्यु के शीघ्र बाद ही विघटन के तत्व उत्पन्न हो गये जिससे कलचुरियों की शक्ति क्षीण होने लगी। परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी में गांगेयदेव की अधीनता में कलचुरियों को भारत की सबसे महान् राजनैतिक शक्ति होने का गौरव प्राप्त हो गया।
कोक्कल प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण सिंहासन पर बैठा। शंकरगण के उपरान्त क्रमश: युवराज प्रथम, लक्ष्मणराज, युवराज द्वितीय तथा कोक्कल द्वितीय कलचुरि राज्य के शासक हुए। कोक्कल द्वितीय को गुजरात के चालुक्य नरेश चामुण्डिराज को पराजित करने का श्रेय है। उसने कुन्तल नरेश सत्याश्रय और गौड नरेश महिपाल को पराजित किया। कोक्कल द्वितीय के बाद गांगेयदेव कलचुरि राज्य का राज्याधिपति बना।
गांगेयदेव- गांगेयदेव लगभग 1019 ई. में त्रिपुरी के राजसिंहासन पर बैठा। गांगेयदेव को अपने सैन्य-प्रयत्नों में विफलता भी प्राप्त हुई किन्तु उसने कई विजयें प्राप्त की और अपने राज्य का विस्तार करने में काफी अंश तक सफलता प्राप्त की। उसके अभिलेखों के अतिरंजनापूर्ण विवरणों को न स्वीकार करने पर भी, यह माना गया है कि गांगेयदेव ने कीर देश अथवा कांगड़ा घाटी तक उत्तर भारत में आक्रमण किये और पूर्व में बनारस तथा प्रयाग तक अपने राज्य की सीमा को बढ़ाया। प्रयाग और वाराणसी से और आगे वह पूर्व में बढ़ा। अपनी सेना लेकर वह सफलतापूर्वक पूर्वी समुद्र तट तक पहुँच गया और उड़ीसा को विजित किया। अपनी इन विजयों के कारण उसने विक्रमादित्य का विरुद धारण किया। उसने पालों के बल की अवहेलना करते हुए अंग पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसे सफलता प्राप्त हुई। यह सम्भव है कि गांगेयदेव ने कुछ समय तक मिथिला या उत्तरी बिहार पर भी अपना अधिकार जमाये रखा था।
डॉ. मजूमदार का कहना है कि गांगेयदेव ने मुसलमानों की शक्ति से लोहा लिया। उसकी यह गर्वोक्ति कि उसने कीर प्रदेश तक धावा बोला था, यह ध्वनित करता है कि उसने मुसलमानों की शक्ति को चुनौती दी क्योंकि कीर प्रदेश मुसलमानों के अधीनस्थ पंजाब का एक भाग था। गांगेयदेव की मृत्यु प्रयाग में हुई थी। उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नियाँ उसके साथ चिता में जल कर भस्म हो गई। गांगेयदेव का शासन-काल पूर्ण रूप से निश्चित नहीं किया जा सकता। परन्तु यह अनुमान किया जाता है कि 1019 ई. में वह सिंहासन पर बैठा और 1040 ई. में उसकी मृत्यु हुई।
गांगेयदेव ही अपने वंश में ऐसा सम्राट् था जिसने अपने नाम के सिक्के चलवाये। उसके सिक्कों पर उसके नाम के साथ-साथ लक्ष्मी की आकृति भी खुदी हुई है। गांगेयदेव के सिक्के सोने, चाँदी और ताँबे, तीनों प्रकार के थे। वह शिवोपासक था और उसने शिवजी का एक भव्य मन्दिर बनवाया था।
लक्ष्मीकर्ण- गांगेयदेव के उपरान्त उसका प्रतापी पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्णराज सिंहासन पर बैठा। वह अपने पिता की भांति एक वीर सैनिक और सहस्रों युद्धों का विजेता था। उसने काफी विस्तृत और महत्त्वपूर्ण विजयों द्वारा कलचुरि शक्ति का विकास किया। कल्याणी और अन्हिलवाड के शासकों से सहायता प्राप्त कर कर्ण ने परमार राजा भोज को परास्त कर दिया। उसने चन्देलों और पालों पर विजय प्राप्त की। उसके अभिलेख बंगाल और उत्तर प्रदेश में पाये गये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन भागों पर उसका अधिकार था। कर्ण का राज्य गुजरात से लेकर बंगाल और गंगा से महानदी तक फैला हुआ था। उसने कलिंगापति की उपाधि ली।
कर्ण की विजयों के कारण उसे भारतीय इतिहास के सबसे महान् विजेताओं में एक कहा गया है। प्रसिद्ध विजेता नैपोलियन के साथ उसकी तुलना की गई है। परन्तु यह न भूलना चाहिए कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में कर्ण को कई पराजयें सहनी पड़ी थीं। पालों, चन्देलों, परमारों और सोलंकियों, सभी ने उसको हराया। अतएव कर्ण की प्रारम्भिक विजयों का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सका। उसकी विजयों ने उसके गौरव को तो बढ़ाया किन्तु उसकी राज्य-सीमा में कोई विस्तार नहीं किया। 1072 ई. में कर्ण ने अपने पुत्र के लिए सिंहासन त्याग दिया।
यशकर्ण- यश कर्ण सन सन 1703 के लगभग त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठा। उसने वेंगी राज्य और उत्तरी बिहार तक धावे बोले। उसके पिता के अंतिम दिनों में उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गयी थी और इसी डावांडोल स्थिति में उसने राज्सिनासन पर पैर धारा था। परन्तु अपने राज्य की इस गड़बड़ स्थिति का विचार न करते हुए यशकर्ण ने अपने पिता और पितामह की भांति सैन्य-विजय क्रम जारी रखा। पहले तो उसे कुछ सफलता मिली, लेकिन शीघ्र ही उसका राज्य स्वयं अनेक आक्रमणों का केंद्र बिंदु बन गया। उसके पिता और पितामह की आक्रमणात्मक साम्राज्यवादी नीति से जिन राज्यों को क्षति पहुंची थी, वे सब प्रतिकार लेने का विचार करने लगे। दक्कन के चालुक्यों ने उसके राज्य पर हमला बोल दिया और अपने हमले में वे सफल भी रहे। गहड़वालों के उदय ने गंगा के मैदान में उसकी स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला। चंदेलों ने भी उसकी शक्ति को सफलतापूर्वक खुली चुनौती डी। परमारों ने यश कर्ण की राजधानी को खूब लूटा-खसोटा। इन सब पराजयों ने उसकी शक्ति को झकझोर दिया। उसके हाथों से प्रयाग और वाराणसी के नगर निकल गए और उसके वंश का गौरव श्रीहत हो गया।
यशःकर्ण के उत्तराधिकारी और कलचुरी वंश का पतन- यशः कर्ण के उपरांत उसका पुत्र गया कर्ण सिंहासनारूढ़ हुआ किन्तु वह अपने पिता के शासन काल में प्रारंभ होने वाली अपने वंश की राजनैतिक अवनति को वह रोक न सका। उसके शासन-काल में रत्नपुरी की कलचुरि शाखा दक्षिण कौशल में स्वतन्त्र हो गई। गयाकर्ण ने मालवा-नरेश उदयादित्य की पौत्री से विवाह किया था। इसका नाम अल्हनादेवी था। गयाकर्ण की मृत्यु के बाद, अल्हनादेवी ने भेरघाट में वैद्यनाथ के मन्दिर और मठ का पुनर्निर्माण कराया। गयाकर्ण का अद्वितीय पुत्र जयसिंह कुछ प्रतापी था। उसने कुछ अंश तक अपने वंश के गौरव को पुनः प्रतिष्ठापित करने में सफलता प्राप्त की। उसने सोलंकी नरेश कुमारपाल को पराजित किया। जयसिंह की मृत्यु 1175 और 1180 के मध्य किसी समय हुई। उसका पुत्र विजयसिंह कोक्कल-प्रथम के वंश का अन्तिम नरेश था जिसने त्रिपुरी पर राज्य किया। विजयसिंह को 1196 और 1200 के बीच में जैतुगि-प्रथम ने, जो देवगिरि के यादववंश का नरेश था, मार डाला और त्रिपुरी के कलचुरि वंश का उन्मूलन कर दिया।

अन्हिलवाड के सोलंकी Solanki Of Anhilvad

गुजरात में अन्हिलवाड (पाटन) नामक स्थान पर पहले प्रतिहार साम्राज्य का अधिकार था, परन्तु राजनैतिक प्रभुता के लिए राष्ट्रकूटों और प्रतिहारों में जो पारस्परिक संघर्ष हुआ उससे लाभ उठाकर मूलराज-प्रथम ने दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में (942 ई.) अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया और अन्हिलवाड को अपने राज्य की राजधानी बनाया।
मूलराज सोलंकी- मूलराज सोलंकी ने अपने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर लेने के बाद इसकी सीमाओं के विस्तार का भी प्रयत्न किया। उसने शीघ्र ही कच्छ देश और सुराष्ट्र के पूर्वी भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। परन्तु उसे अपने प्रबल पड़ोसियों की शक्ति का भी सामना करना पड़ा। उसने कई आक्रमणों का सामना किया और अधिकतर में उसे पराजय ही प्राप्त हुई फिर भी उसने अपने राजकुल का, जिसका कि वह स्वयं प्रतिष्ठापक था, नाश नहीं होने दिया। उसकी मृत्यु के समय सोलंकियों का राज्य पूर्व और दक्षिण में साबरमती तक फैला हुआ था। जोधपुर राज्य का संचार भी उत्तर में इसमें सम्मिलित था। मूलराज की मृत्यु रणस्थल में विग्रहराज-द्वितीय के हाथों से हुई। मूलराज के पुत्र चामुण्डराज ने धारा नगरी के परमार नरेश सिन्धुराज को पराजित किया। चामुण्डराज का पौत्र भीमदेव-प्रथम (1022) सोलंकी राजकुल का एक विख्यात नरेश था।
भीमदेव-प्रथम- भीमदेव-प्रथम के शासन-काल के प्रारम्भिक वर्षों में महमूद ने उसके राज्य पर आक्रमण किया था। भीम ने उसके आक्रमण का मुकाबला करने का निश्चय किया। परन्तु एकाएक उसके ऊपर मुस्लिम आक्रमणकारी का आतंक छा गया और वह रणभूमि छोड़कर भाग गया। महमूद ने सोमनाथ के मन्दिर को खूब लूटा-खसोटा और वह अतुल सम्पत्ति लादकर अपने देश ले गया। महमूद द्वारा भगवान सोमनाथ के मन्दिर के तुड़वा दिये जाने पर भीमदेव ने उसका पुनर्निर्माण कराया। महमूद के लौट जाने पर भीमदेव ने फिर से अपनी शक्ति का संगठन किया। पहले उसने आबू के परमार राजा को हराया। भीम ने परमार-नरेश के पतन में अपना योगदान दिया। इस कार्य में भीम ने लक्ष्मीकर्ण कलचुरि से सहायता प्राप्त की थी परन्तु उन दोनों की मैत्री अधिक समय तक टिक न सकी। दोनों में परस्पर लड़ाई छिड़ गई जिसमें लक्ष्मीकर्ण की हार हो गई। माना जाता है कि भीम प्रथम ने भीमेश्वर देव तथा मट्टारिका के मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके सेनानायक विमल ने माउंट आबू पर एक प्रसिद्ध जैन मंदिर का निर्माण करवाया। यह विमल वसही के नाम से जाना जाता है। भीमदेव के उपरान्त कर्णदेव हलवाड के राजसिंहासन पर समासीन हुआ। कर्ण ने 1064 से लेकर 1094 तक शासन किया। कर्ण का शासन-काल शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए विख्यात है। उसने अनेक मन्दिरों (कर्णेश्वर मंदिर) का निर्माण कराया, उसके समय में उसके ही नाम से एक नगर की स्थापना की गई। उसने कवि विल्हण को राजाश्रय प्रदान किया। कर्ण को परमार राजा उदयादित्य ने युद्ध में पराजित किया। कर्ण ने कर्ण सागर झील का भी निर्माण करवाया था।
जयसिंह सिद्धराज- कर्ण का पुत्र जयसिंह सिद्धराज अपने वंश का प्रतापी और विख्यात राजा था। अपनी रणवाहिनी को उसने चारों दिशाओं में घुमाया और लगभग सर्वत्र विजय पायी। अपनी विजयों से उसने अपने पड़ोसियों को आतंकित कर दिया। उसने सुराष्ट्र के आभीर सरदार को युद्ध में पराजित करके उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। जयसिंह ने बारह वर्षों तक मालवा से युद्ध किया और नरवर्मन तथा यशोवर्मन दोनों को सिंहासन-च्युत् करके उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। नद्दुल और शाकम्भरी दोनों स्थानों के चाहमान नरेशों ने उसके आगे आत्म-समर्पण कर दिया और उसके सामन्त के रूप में अपने राज्यों का शासन करते रहे। जयसिंह ने यशकर्ण कलचुरि और गोविन्दचन्द्र गहड़वाल से मैत्री-सम्बन्ध स्थापित किया। उसने चन्देल राज्य पर भी आक्रमण किया और कालिंजर तथा महोबा तक आगे बढ़ गया। चन्देल नरेश मदनवर्मन को बाध्य होकर जयसिंह के साथ सन्धि करनी पड़ी और इस सन्धि के फलस्वरूप उसने सोलंकी राज्य को भिलसा का प्रदेश दिया। जयसिंह ने चालुक्य नृपति विक्रमादित्य-षष्ठ पर भी विजय प्राप्त की। कहा जाता है कि सिन्ध के अरबों के विरुद्ध युद्ध में भी जयसिंह को सफलता प्राप्त हुई थी। उसके अभिलेखों के प्राप्ति-स्थानों से विदित होता है कि गुजरात, काठियावाड, कच्छ, मालवा और दक्षिणी राजपूताना उसके राज्य में सम्मिलित थे। जयसिंह ने 1113-14 ई. में एक नया सम्वत् चलाया।
राजा भोज की भांति यद्यपि सोलंकी नरेश जयसिंह का भी समय अधिकतर युद्ध में व्यतीत हुआ तथापि भोज की ही तरह उसने भी विद्या को प्रश्रय प्रदान किया। ज्योतिष, न्याय और पुराण के अध्ययन के लिए जयसिंह ने शिक्षण संस्थायें खुलवाई। उसकी राजसभा में प्रसिद्ध जैन लेखक महापण्डित हेमचन्द्र रहते थे जिनके अनेक ग्रन्थ, उनके मस्तिष्क और विचार-शक्ति की उर्वरता को व्यक्त करते हैं। जयसिंह स्वयं कट्टर शैव था, परन्तु उसका धार्मिक दृष्टिकोण राजा भोज की भांति जिज्ञासा-प्रधान था। जयसिंह विभिन्न धमाँ के आचायों के बीच धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श के लिए सम्मेलनों का आयोजन करता था। अकबर की धार्मिक विचारधारा का यह पुर्वाभास था। जयसिंह ने अपने राज्य में अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। स्वयं शैव होते हुए भी उसने जैन पण्डित हेमचन्द्र को अपनी राजसभा में स्थान दिया। जयसिंह नेअवन्तिनाथ और सिद्धराज विरुद धारण किये। उसने सिद्धपुर में रूद्रमहाकाल मंदिर बनवाया। लगभग 1143 ई. में जयसिंह का देहान्त हो गया।
कुमारपाल- जयसिंह के उपरान्त उसके दूर के एक सम्बन्धी कुमारपाल ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया, क्योंकि जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था। शाकम्भरी के चाहमानों को कुमारपाल ने पराजित किया और आबू के परमारों को दबाया। कोंकण के राजा मल्लिकार्जुन को भी उसने हराया था। कुमारपाल का नाम जैन धर्म के इतिहास में काफी प्रसिद्ध है जैन ग्रन्थों में लिखा है कि आचार्य हेमचन्द्र के सशक्त धर्म-निरूपण से प्रभावित होकर कुमारपाल ने जैन मत ग्रहण कर लिया। उसने अपने राज्य भर में अहिंसा के सिद्धान्तों के परिपालन के लिए कठोर आज्ञायें निकलवा दीं। उसने ब्राह्मणों को इस बात के लिए बाध्य किया कि वे पशुबलि-प्रधान यज्ञों का परित्याग कर दें। राज्य भर में कुमारपाल ने कसाइयों की दुकानों पर ताला लगवा दिया। संन्यासियों को मृगचर्म मिलना बन्द हो गया क्योंकि पशुओं का आखेट करना राजकीय कानून की दृष्टि से अवैध ठहरा दिया गया था। गिरनार पर्वत के निकट शिकारियों के समुदाय भूखों मरने लगे। राज्य भर में मनोरंजन के लिए पशुओं की लड़ाइयों को निषिद्ध ठहरा दिया गया। जुआ और सुरा-सेवन पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जैन ग्रन्थों में कुमारपाल के अहिंसापालन-सम्बन्धी आदेशों के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। फिर भी उसके जैन मतानुयायी होने में संदेह का कोई कारण नहीं दिखलाई पड़ता। जैन धर्म का अनुयायी होने पर भी कुमारपाल ने अपने पूर्वजों की शिवोपासना-सम्बन्धी मनोवृत्ति का त्याग नहीं किया। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। उत्कीर्ण लेखों में कुमारपाल को शैव कहा गया है। 1171 ई. में कुमारपाल का देहान्त हो गया।
भीमवेव द्वितीय- कुमारपाल के बाद अजयपाल गुजरात का शासक हुआ जिसने अपने राज्य में जैन मत के विरुद्ध एक प्रतिक्रियात्मक नीति का प्रचार किया। उसने जैन मन्दिर को विध्वस्त कराना शुरू किया। कहा जाता है कि उसने महापण्डित हेमचन्द्र के प्रिय शिष्य और प्रसिद्ध जैन लेखक रामचन्द्र का वध करा दिया था। किन्तु उसकी इस धार्मिक असहिष्णुता और संकीर्णता का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। 1176 ई. में प्रतिहार नरेश वयजलदेव ने अजयपाल की हत्या कर दी। अजयपाल के पश्चात् मूलराज-द्वितीय ने कुछ समय तक शासन किया। उसके बाद 1178 ई. में भीमदेव-द्वितीय राजा हुआ जिसने राज्यारोहण के वर्ष ही गोर के मुहम्मद को युद्ध में हराया। सन् 1195 में भीमदेव-द्वितीय ने कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध किया और उसे इतनी गहरी पराजय दी कि मुस्लिम सेनानायक को अजमेर तक पीछे ढकेल दिया। परन्तु दूसरे वर्ष (1197 ई.) में अन्हिलवाड़ा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। किन्तु कुतुबुद्दीन का गुजरात पर स्थायी रूप से अधिकार नहीं स्थापित हो सका।
भीमदेव-द्वितीय ने एक लम्बे समय, लगभग साठ वर्षों तक शासन किया। मुसलमानों के जो आक्रमण उसके समय में हुए उससे उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गई और प्रान्तीय शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित करने का अवसर ताकना आरम्भ किया। अन्हिलवाड़ के राज्य की स्थिति इस समय इतनी गिरी हुई थी कि इसका शीघ्र विनष्ट हो जाना अवश्यवम्भावी प्रतीत हो। रहा था। राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों और कुछ मन्त्रियों की नीयत भी दूषित हो गई। परन्तु अर्णोराज नामक एक बघेल ने राज्य को पूर्ण विनाश से बचा लिया। उसके सुयोग्य पुत्र लवण प्रसाद ने अपने पिता के नाम को जारी रखा और शासन-संचालन का सारा कार्य अपने ही कन्धों पर वहन किया। उसने आन्तरिक विद्रोहों से राज्य की रक्षा की और बाहरी आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया। इस प्रकार अन्हिलवाड का राज्य अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करता हुआ अलाउद्दीन खिलजी के पूर्व तक बना रहा। तेरहवीं शताब्दी के अन्त में इस महत्त्वाकांक्षी मुस्लिम शासक ने अपने दो सेनापतियों उलुग खां और नुसरत खां
की अध्यक्षता में एक विशाल सेना भेजी जिसे देखकर कर्ण, जो इस समय का शासक था, भाग गया। गुजरात के राज्य पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। जैन आचार्य मेरुतुंग के ग्रन्थ प्रबोधचिन्तामणि से गुजरात के प्राचीन इतिहास के विषय में काफी महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं।

मालवा के परमार Parmar of Malwa

परमार वंश की उत्पत्ति भी गुर्जर प्रतिहारों की भांति अग्निकुण्ड से बताई जाती है। किन्तु अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन अन्य लेखों से सिद्ध होता है कि परमार शासकों का उद्भव राष्ट्रकूटों के कुल में हुआ था। इनकी कई शाखाएं थीं। परमार वंश की स्थापना उपेन्द्र अथवा कृष्णराज ने दसवीं शताब्दी के के प्रारंभ में की थी। पहले परमार लोग दक्कन के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। आबू पर्वत के निकट उपेन्द्र रहता था। उसे राष्ट्रकूट सम्राट् गोविन्द-तृतीय ने का शासक नियुक्त कर दिया था। उपेन्द्र के बाद उसके दो वंशजों ने राष्ट्रकूटों के माण्डलिक नृपतियों के रूप में मालवा पर शासन किया और वे अपने स्वामी (राष्ट्रकूट सम्राट्) के प्रति वफादार बने रहे। चौथे परमार सामन्त वाक्पति राज-प्रथम ने अपने वंश की स्थिति का उन्नयन किया। वीरसिंह-द्वितीय ने धारा नगरी पर अधिकार किया और प्रतिहारों के साथ उसका संघर्ष हुआ, किन्तु उन्होने उसको मालवा से निकाल बाहर कर दिया। उसके उत्तराधिकारी (हर्षसीयक)-द्वितीय ने गुर्जर प्रतिहारों की ह्रासोन्मुखी राजसत्ता से पूरा-पूरा लाभ उठाया और मालवा में फिर से अपने वंश की सत्ता स्थापित की। उसने सम्भवत: हूणों से भी युद्ध किया। हर्षसीयक-द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की शक्ति को गिरते हुए देखकर उनसे भी लोहा लिया। उदयपुर के एक अभिलेख से पता चलता है कि 972 ई. में मान्यखेत के राष्ट्रकूटों के साथ उसका संघर्ष हुआ और खोट्टिग नामक राष्ट्रकूट-नरेश को पराजित कर उसने उसकी विपुल सम्पत्ति का अपहरण कर लिया। पाइय-लच्छी नामक प्राकृत शब्दकोष का प्रणेता धनपालसीयक-द्वितीय की राजसभा में रहता था। सीयक-द्वितीय ने मालवा के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालवर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था। उसने सम्राटोचित विरुद भी धारण किये। उसका पुत्र वाक्यपति मुञ्ज अपने कुल का एक प्रतापी सम्राट् था।
वाक्यपति मुञ्ज- मालवा के परमारों की शक्ति का वास्तविक रूप में वाकयपति मुञ्ज ने विकास किया। अपने समय का वह एक महान् योद्धा और अपने कुल का सबसे शक्तिशाली नरेश था। उसका सम्पूर्ण जीवन युद्धों और विजयों में व्यतीत हुआ। उत्पलराजअमोघवर्षश्रीवल्लभ,पृथ्वीवल्लभ आदि विरुद उसने धारण किये। उदयपुर के अभिलेख में वाक्यपति मुञ्ज की विजयों की एक पूरी सूची दी गई है। सबसे पहले उसने त्रिपुरी के राजा युवराज-द्वितीय को पराजित किया। इसके बाद लाट (गुजरात), कर्णाटक, चोल और केरल के राजाओं को युद्ध में परास्त किया। उसने उन हूणों पर, जो मालवा के उत्तर-पश्चिम में हूणमण्डल नामक एक छोटे से प्रदेश पर शासन कर रहे थे, भी विजय प्राप्त की। हूणमण्डल नामक यह लघु-प्रदेश तोरमाण और मिहिरकुल के विशाल सम्राट् का अन्तिम अवशेष था। मुञ्ज ने नद्दुल के चाहमानों पर आक्रमण किया और उनसे आबू पर्वत और आधुनिक जयपुर राज्य के दक्षिण में अनेक राज्यों को छीन लिया। उसने अन्हिलपाटन में चालुक्य वंश के संस्थापक मूलराज को भी हराया।
मुञ्ज ने अपने पड़ोस के राज्यों को जीत लेने के उपरान्त, चालुक्य नरेश तैल-द्वितीय पर आक्रमण करने का विचार किया। इस समय तैल-द्वितीय की शक्ति काफी अधिक बढ़ गई थी। उसने राष्ट्रकूटों से दक्कन का प्रदेश जीत लिया था और मालवा पर अपनी शक्ति का सिक्का जमाना चाहा। मुञ्ज ने तैल-द्वितीय की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए उस पर छ: बार आक्रमण किये, परन्तु जब उसने, सातवीं बार अपने अनुभवी मंत्री की चेतावनी की उपेक्षा कर गोदावरी पार की तो वह बन्दी बना लिया गया। उसे कारावास में डाल दिया गया। मुञ्ज ने बाहर आने की योजनायें बना रखी थी, किन्तु उसकी योजनाओं की सूचना उसके शत्रु को मिल गई, जिससे उसका वध करा दिया गया। इस प्रकार राज्यारोहण के बीस वर्ष पश्चात् सन् 995 ई. में मुञ्ज को अपना दु:खद अन्त दखना पड़ा।
मुञ्ज राजपूत युग के हिन्दू शासकों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, यद्यपि उसकी मृत्यु अत्यन्त दु:खद परिस्थिति में हुई। वह एक महान् विजेता था, यह हम ऊपर देख चुके हैं। साहित्य में मुञ्ज का उल्लेख प्रचुरता से प्राप्त होता है। मेरुतुग के प्रबन्धचिन्तामणि नामक ग्रन्थ की अनेक कथाओं का वह चरितनायक है। मुञ्ज स्वयं कवि था और उसके द्वारा रचित पद्यों का संकलन काव्य-संग्रहों में मिलता है। कला और साहित्य का वह महान् संरक्षक और पोषक था। धनंजय, हलायुध, धनिक और पद्यगुप्त नामक कवि उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे। पद्यगुप्त ने नवसाहसांकचरित् और घनञ्जय ने दशरूपक नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया। धनिक दशरूपावलोक और हलायुधअभिधानरत्नमाला तथा मृतसंजीवनी के रचयिता थे। मुञ्ज के लिए यह भी कहा जाता है कि वह एक उदार शासक था। उसने अनेक बड़े-बड़े जलाशय खुदवाये और कई मन्दिरों का निर्माण कराया। सिंधुराज- मुंज के निधनोपरान्त उसका अनुज सिंधुराज सिंहासन पर बैठा। उसने चालुक्य नरेश सत्यात्रय तथा लाट नरेश गोंगिराज को पराजित किया। सिंधु राज ने कौशल के सोमवंशीय राजाओं को भी पदावनत किया। किन्तु वह गुजरात नरेश नामुण्डराज द्वारा पराजित हुआ। सिन्धुराज का लगभग 1000 ई. में देहावासन हो गया।
भोज- संस्कृत-साहित्य में भोज का नाम अमर है। भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में भोज की गणना की जाती है। उसका शासन-काल अर्द्ध-शताब्दी से भी अधिक समय तक रहा। भोज अपने समय का एक पराक्रमी योद्धा था, किन्तु अपनी सैनिक सफलताओं के द्वारा भी वह अपने राज्य की सीमा का विस्तार अधिक न कर सका। हां, यह अवश्य है कि सैनिक-कार्यों ने समकालीन नरेशों के बीच उसकी ख्याति जमा दी। भोज ने कल्यानी के चालुक्य नरेश जयसिंह-द्वितीय को परास्त करके मुञ्ज की हार का बदला लिया। भोज ने कलिंग के गड्डों के एक सामंत इन्द्र्रथ और उत्तरी कोंकण के शासकों को हराया। गांगेयदेव और राजेंद्र चोल से उसने मित्रता स्थापित की जिससे वह अपने चिरशत्रु दक्कन के चालुक्यों से लोहा ले सके। प्रारम्भ में तो भोज को अवश्य सफलता प्राप्त हुई किन्तु बाद में अपने राजाओं के साथ पीछे लौटने के लिये उसे विवश होना पड़ा। बाद में चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने भोज के राज्य पर आक्रमण करके उससे बदला लिया। माण्डू का सुदृढ़, उज्जैन की प्रसिद्ध नगरी और परमार राज्य की राजधानी धारा नगरी, इन सब पर सोमेश्वर का अधिकार हो गया और उसने इनकों खूब लूटा-खसोटा। चंदेलों, ग्वालियर के कच्छपघाटों और कन्नौज के राष्ट्र्कुतों के विरुद्ध युद्ध में उसे विफलता ही प्राप्त हुई। शाकम्भरी के चाहमान नरेशों के विरुद्ध युद्ध में उसे कुछ सफलता प्राप्त हुई। नद्दुल के चाह्मानों द्वारा गहरी पराजय सहन करनी पड़ी। भोज ने गुजरात के भीम-प्रथम तथा लात की किर्तिराज को परस्त किया। 1043 ई. में उसने कुछ अन्य हिन्दू नरेशों की सहायता से मुसलमानों से हाँसी, थानेश्वर तथा नगरकोट छीन लिया। उदयपुर की प्रशस्ति में भोज की विजयों का अतिरंजनापूर्ण वर्णन है और उसे कैलाश तथा मलय भूमि का विजेता कहा गया है। निस्संदेह यह प्रशस्ति ऐतिहासिक तथ्य से दूर है। वास्तव में भोज को युद्ध में जितनी विजयें प्राप्त हुई, लगभग उतनी ही पराजयों को भी उसने सहन किया। हाँ, यह अवश्य है कि एक सच्चे वीर की भाँति भोज ने विशेष महत्त्व नहीं दिया। अपनी विजयों द्वारा उसने अपने समय आंतकित किया और साथ ही साथ उसकी पराजयों ने उसके सैन्य-जीवन अपयश भी लगाया। उसके सेनानायकों, कुलचन्द्र, साद और सूरादित्य ने उसके राज्य-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भिज का राज्य बंसवाड़ा से लेकर नासिक तक और कैर से लेकर भिलसा तक फैला हुआ था। अपने सैन्य जीवन में भोज को एक दुखद अन्त देखना पड़ा।
भोज को अपने पश्चिम के पड़ोसी राज्य चालुक्य के विरोध में प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त हुई, परन्तु चालुक्य नरेश भीम ने भोज का सामना करने में चतुर कूटनीति का अवलम्बन लिया। उसने भोज के पूर्वीय पड़ोसी राज्य कलचुरि से मित्रता स्थापित कर ली। कलचुरि नरेश कर्ण को साथ लेकर भीम ने पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं से भोज के राज्य पर धावा बोल दिया। भोज ने इस आक्रमण का सामना करने की तैयारी की परन्तु वह काफी वृद्ध हो चला था और आजीवन युद्ध करते रहने से शरीर भी शिथिल हो गया था। अतएव उसे रोग ने धर दबाया 1055 ई. में उसका देहान्त हो गया। भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था। वह शैव था। उसने धर नगरी का आकार बढ़ाया तथा भोजपुर नगर की स्थापना की। इस नगर के निकट उसने 250 वर्ग मिल क्षेत्र में एक विशाल झील का निर्माण कराया था। मालवा के सुल्तान हुशंग शाह ने 15 वीं शताब्दी में इस झील को सुखा कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित कर दिया। भोज के नाम पर एक शिवमन्दिर आज भी उस स्थान पर विद्यमान है। सम्भवत: धार का लौह-स्तम्भ (43 फीट-4इंच) उसके शासन-काल में बनाया गया था। भोज के सरस्वती मन्दिर में मां सरस्वती की जो प्रतिमा बनाई गई थी, वह ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में आज भी सुरक्षित है। इतिहासकार डॉ. गांगुली ने भोज का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भोज को, ये सब उपलब्धियां उसे मध्यकालीन भारत के महान् सम्राटों में प्रतिष्ठापित करती हैं। उसने धार में एक सरस्वती मंदिर एवं संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की।
उसके बारे में यह प्रचलित है की वह हरेक कवि को प्रत्येक श्लोक के लिए एक लाख रूपये देता था। उसके दरबार में भाष्कर भट्टदामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान् रहते थे। आयुर्वेदसर्वस्वसमरंगण सूत्रधारराजमृगांकव्यवहार समुच्चयशब्दानुशासनसरस्वती कंठाभरणनाममालिकायुक्तिकल्पतरु जैसे ग्रन्थों को लिखने का श्रेय भी उसे जाता है। उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों निरक्षित हो गए। वह शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों मे पारंगत था,  कमल-कृपाण दोनों का योद्धा था। भोज की रानी अस्न्धती भी एक उच्च कोटि की विदुषी थी। उसकी मृत्यु पर एक विद्वान् ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए थे- असधारा निराधारा निरालम्ब सरस्वती पंडित खण्डितासर्वे भोजराज दिवगते। अर्थात्- भोजराज के निधन हो जाने से आज धारनगरी निराधार हो गई है। सरस्वती बिना किसी अवलम्ब के हो गई है और सभी पण्डित खण्डित हो गए हैं।'
भोज के उत्तराधिकारी- भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह एक ऐसे समय में मालवा के परमार राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ जिस समय राज्य को चालुक्य और कलचुरि आतंकित किए थे। जयसिंह ने ऐसी कठिन परिस्थिति में अपने दक्षिणी पड़ोसियों, दक्कन के चालुक्यों से सहायता की याचना की। दक्कन के चालुक्यों ने अपना पुराना बैर भुलाकर जयसिंह की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और राजकुमार विक्रमादित्य ने मालवा को उसके शत्रुओं से मुक्त कर दिया। उदयादित्य ने, जो सम्भवत: भोज का भाई था, सिंहासन पर अनुचित तरीकों से अपना अधिकार जमा लिया। उसने मालवा की गिरती शक्ति को संभालने का प्रयत्न किया। उसने उदयपुर में नीलकण्ठेश्वर मन्दिर का निर्माण कराया जो अब भी अच्छी स्थिति में विद्यमान है और उस युग के उत्तर भारत की वास्तुकला का सुन्दर नमूना प्रस्तुत करता है। इन्दौर के एक गांव उन में बहुत से जैन और हिन्दू मन्दिर हैं जिनमें से अधिकांश का निर्माण सम्भवतः उदयादित्य ने कराया था।
उदयादित्य के उपरान्त लक्ष्मणदेव मालवा का नरेश हुआ। उसने यशकर्ण कलचुरि और कदाचित् चोलों तथा गजनी के महमूद के वंशजों पर विजय प्राप्त की। नरवर्मन और यशोवर्मन लक्ष्मणदेव के बाद मालवा के उत्तराधिकारी हुए जिनकी ज्ञात तिथि क्रमश: 1097-1111 और 1134-1142 है। इस काल में मालवा के ऊपर सोलंकियों ने अपना अधिकार जमा लिया और 1137 से लेकर 1173 तक उस पर उनका अधिकार स्पष्ट है। यशोवर्मन की मृत्यु के बाद परमारों का राज्य उसके उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित कर दिया गया।
अर्जुनवर्मन के समय में मालवा का प्राचीन वैभव कुछ अंशों में लौट आया। अमरुशतक पर एक टीका अर्जुनवर्मन ने स्वयं लिखी और उसके शासन-काल में पारिजातमञ्ज नामक नाटक लिखा गया, जो अपने पूर्ण रूप में आज उपलब्ध नहीं है, परन्तु यह पाषाणस्तम्भों पर उत्कीर्ण कराया गया था, अतएव इसके कुछ अंश अब भी मिलते हैं। अर्जुनवर्मन की मृत्यु के पश्चात् परमारों की शक्ति धीरे-धीरे गिरने लगी। सन् 1234 में इल्तुतमिश ने और 1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को खूब लूटा। इसके बाद मालवा की हिन्दू-सत्ता का नाश हो गया।

बुन्देलखण्ड के चन्देल Chandel of Bundelkhand

प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर खड़े हुए राज्यों में जैजाकभुक्ति (बुन्देलखण्ड) के चन्देलों का राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली था। विन्सेन्ट स्मिथ का मत है कि चन्देलों का उद्भव गोंड और भरों के कबीलों से हुआ था और उनका मूल छतरपुर राज्य में केन नदी के तट पर मनियागढ़ था। परन्तु चन्देल लोग अपने को ऋषि चन्द्रात्रेय की सन्तान मानते हैं। उनका कथन है कि ऋषि चन्द्रात्रेय का जन्म चन्द्रमा द्वारा हुआ था। चन्देल राजाओं ने अपने अभिलेखों में चन्द्रात्रेय को अपना आदि पुरुष माना है। सम्भवत: इसी नाम के आधार पर उनका नाम चन्देलपड़ा। अभिलेखों में चन्देल राजे जैजाकभुक्ति के चन्देल कहे गये हैं। जैजाकभुक्ति के प्रमुख नगर थे- छतरपुर, महोबा (महोत्सव-नगर आधुनिक हमीरपुर), कालिंजर और खजुराहो। खजुराहो चन्देल राज्य की राजधानी थी।
नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नन्नुक ने छतरपुर के निकट अपना एक राज्य स्थापित कर लिया। उसने खजुराहो को अपनी राजधानी बनाया। नन्नुक के पौत्र जयशक्ति (जेंजा या जेजाक) और विजयशक्ति (विजा या विज्जक) थे। जयशक्ति के ही नाम के आधार पर चन्देल राज्य का नाम जैजाकभुक्ति पड़ा। इस वंश का प्रथम राजकुमार, जिसने वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त की, हर्ष था। इसने महीपाल को 916 के राष्ट्रकूट आक्रमण के उपरान्त कन्नौज पर फिर से अधिकार करने में सहायता प्रदान की। उसने महीपाल-प्रथम या क्षितिपाल का उसके गृह-कलह में भी साथ दिया और उसके सौतेले भाई भोजराज-द्वितीय को सिंहासनच्युत कर दिया। हर्ष के समय में चन्देलों की शक्ति यमुना तक फैल गई जो उनके और कन्नौज राज्य के बीच की सीमा बन गई। हर्ष ने चाहमान वंश की एक कन्या के साथ विवाह किया था। उसे ही चन्देलों की शक्ति और महानता का वास्तविक संस्थापक कहा जा सकता है।
यशोवर्मन- यशोवर्मन हर्ष का पुत्र था। उसने अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर दिया। उसने गुर्जरों को काफी क्षति पहुँचाई। वह एक महत्त्वाकांक्षी नरेश था।
प्रतिहार साम्राज्य की गिरती हुई अवस्था ने उसकी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसर दिया। चेदियों के विरुद्ध आक्रमण करने में वह बड़ा भाग्यवान् प्रमाणित हुआ क्योंकि इसी आक्रमण के फलस्वरूप उसे कालिंजर का प्रसिद्ध गढ़ प्राप्त हुआ। उत्तर में यमुना तक यशोवर्मन ने अपने राज्य का विस्तार किया। इसके उपरान्त उसने अपना विजय-अभियान आरम्भ किया और अभिलेखों के अनुसार उसने गोड़ों, कौशलों, कश्मीरियों, मैथिलों, मालवों, चेदियों और गुर्जरों को परास्त किया। यह निश्चित है कि अभिलेखों की यह उक्ति अतिरंजनापूर्ण है। परन्तु फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि यशोवर्मन ने उत्तर भारत में काफी महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त की और चन्देलों को काफी शक्तिशाली बना दिया। चन्देल राज्य की शक्ति कालिंजर के गढ़ में केन्द्रित हो गई। यद्यपि चन्देल-लेखों में अब भी प्रतिहार राजा को सम्राट् स्वीकार किया जाता था, तथापि यशोवर्मन व्यवहारिक रूप में शासन के विषय में पूर्ण स्वतन्त्र था। यशोवर्मन ने खजुराहो के एक प्रसिद्ध मन्दिर का निर्माण कराया और इसमें विष्णु भगवान की उस प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया जो उसने देवपाल से प्राप्त की थी। यशोवर्मन की मृत्यु के उपरान्त धंग राजा हुआ।
ग- दसवीं शताब्दी के अन्त में धग उत्तर भारत का सबसे प्रतापी और शक्तिशाली नरेश हो गया। धंग ने अधीनता के इस छद्मवेश को भी उतार फेंका और अपनी पूर्ण स्वाधीनता घोषित कर दी। उसके शासन-काल में चन्देलों की शक्ति का बड़ी तीव्र गति से विकास हुआ। 954 ई. तक उसका राज्य उत्तर में यमुना तक, उत्तर-पश्चिम में ग्वालियर तक और दक्षिण-पश्चिम में भिलसा तक फैल गया। ग्वालियर और कालिंजर उसके हाथ में आ जाने से मध्य भारत में उसकी शक्ति काफी सुदृढ़ हो गई। उसने सम्भवत: इलाहाबाद पर भी अपना अधिकार जमाया। अपने पचास वर्ष के सुदीर्घकालीन शासन में धग ने प्रतिहार साम्राज्य के भूभागों को विजित करना प्रारम्भ किया और यमुना के उत्तर में दूर तक और पूर्व में बनारस तक अपना राज्य बढ़ा लिया। अभिलेखों में उसकी अन्य विजयों का भी उल्लेख किया गया है, परन्तु उन विजयों का वर्णन सत्य के ऊपर समाधारित न हो कर प्रशस्ति-मात्र जान पड़ता है। सुबुक्तगीन के विरुद्ध पंजाब के शाही नरेश जयपाल के पक्ष में हिन्दू राजाओं का जो संघ निर्मित किया गया था उसमें चन्देल राजा धंग भी सम्मिलित हुआ था। खजुराहो में उसने शिव-मन्दिरों का निर्माण कराया जिनका नाम मार्कटेश्वर और प्रमथनाथ पड़ा। एक विद्वान् का कथन है कि खजुराहों के कुछ सुन्दरतम मन्दिरों का निर्माता धंग ही था। धंग बड़ा दीर्घायु था। वह सौ वर्ष से अधिक जीवित रहा। 1002 में प्रयाग में उसका शरीरान्त हो गया। कहा जाता है कि धंग ने रूंगम पर चिताग्नि में बैठकर अथवा संगम में डूब कर अपने जीवन का अंत किया था।
गण्ड और विद्याधर- धंग के उपरान्त उसका पुत्र गण्ड चन्देल राज्य का स्वामी हुआ। उसने भी अपने पिता की भांति महमूद गजनवी के विरुद्ध संगठित किये गये हिन्दू राजाओं के संघ में भाग लिया था। आनन्द पाल (जयपाल) के अनुरोध पर महमूद के आक्रमणों का सामना करने के लिए हिन्दू राजाओं ने अपना संघ बनाया था, परन्तु यह संघ भी महमूद के प्रसार को रोकने में सफल न हो सका। उसके बाद विद्याधर जैजाकभुक्ति राज्य का अधिकारी हुआ। विद्याधर ने, महमूद के प्रति आत्मसमर्पण करने के कारण राज्यपाल प्रतिहार को घोर दण्ड दिया और कन्नौज के साम्राज्य को नष्ट करने का प्रयत्न किया। परमार नरेश भोज-प्रथम और कलचुरि राजा कोक्कल-द्वितीय के साथ विद्याधर की शत्रुता थी परन्तु उसके सामने इन राजाओं की शक्ति तुच्छ थी। उसका प्रभाव चम्बल से लेकर नर्मदा तक फैला हुआ था। अतएव मुस्लिम लेखकों ने उसे अपने समय का सबसे प्रभावशाली राजकुमार कहा है। गजनी के महमूद ने जब 1021 में भारत पर आक्रमण किया और विद्याधर के सामने आया तो कुछ लेखकों के अनुसार, विद्याधर रणक्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। परन्तु विद्याधर के रणभूमि से भागने के विवरण पर कुछ विद्वान विश्वास नहीं करते। डॉ. रे ने इस बात का खण्डन किया है कि विद्याधर बिना लड़े ही रणभूमि से भाग निकला था। अधिक प्राचीन लेखकों के विवरण को अपने विश्वास का आधार बनाते हुए रे महोदय ने लिखा है कि एक भयंकर, किन्तु अनिश्चयात्मक संग्राम हुआ और चन्देल नरेश रात्रि के अंधकार में रणनीति के दृष्टिकोण से पीछे हट गया। अगले वर्ष उन दोनों में पुन: संघर्ष हुआ, किन्तु महमूद को ग्वालियर तथा कालिंजर के विरुद्ध सफलता प्राप्त न हो सकी। इसमें कोई संदेह नहीं की महमूद को इस बात का अनुभव हो गया कि विद्याधर के अधीन चन्देल राज्य, राज्यपाल के अधीन प्रतिहार राज्य से, काफी भिन्न और अधिक शक्तिशाली था। महमूद ने दो बार चंदेलों पर आक्रमण किए, परन्तु लम्बे घेरों के बाद भी उनके दुर्गों पर अधिकार ने कर सकने के कारण उसे लौट जाना पड़ा। उसने विद्याधर के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया। डॉ. मजूमदार ने लिखा है की विद्याधर ही ऐसा अकेला भारतीय नरेश था जिसे इस बात का गौरव प्राप्त है की उसने सुल्तान महमूद की विजय पिपासा प्रवृत्ति को दृढ़ता पूर्वक रोका और उस सहानुभूतिशून्य विजेता के द्वारा विवेकशून्य विनाश से अपने राज्य को बचा लिया। 1029 ई. में विद्याधर का देहान्त हो गया।
चन्देलों की शक्ति के विकास में चेदि नरेश गांगेय के उत्थान ने बाधा पहुंचाई। उसके पुत्र लक्ष्मीकर्ण कलचुरि की शक्ति ने भी चन्देलों की शक्ति को पर्याप्त क्षति पहुँचाई। गण्ड के पौत्र विजयपाल को विवश होकर बुन्दलेखण्ड की पहाड़ियों में शरण लेनी पड़ी और उसके पुत्र देववर्मन को गांगेय के पुत्र कर्ण ने सिंहासनच्युत् कर दिया। परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कीर्तिवर्मन ने ब्राह्मण योद्धा गोपाल की सहायता से अपने वंश की लुप्तप्राय शक्ति और मर्यादा को पुन: प्रतिष्ठापित किया।
कीर्तिवर्मनमदनवर्मन और परमार्दि- कीर्तिवर्मन की शक्ति के उत्थान का विवरण संस्कृत के प्रबोधचन्द्रोदय नाटक से मिलता है। यह नाटक कृष्ण मिश्र ने लिखा था और कीर्तिवर्मन की विजय के उपलक्ष्य में यह सबसे पहले अभिनीत किया गया था। कीर्तिवर्मन ने कृष्ण मिश्र को अपना राजाश्रय प्रदान करने के अतिरिक्त और भी सांस्कृतिक कार्य किये। उसने महोबा में शिवमन्दिर और कालिंजर तथा आजमगढ़ में भी भवन बनवाये। कीर्तिवर्मन ने महोबा और चन्देरी में झीलें भी खुदवाई। उसने कालचुरी नरेश लक्ष्मीकर्ण को पराजित किया। महमूद ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया था। किन्तु कीर्तिवर्मन ने उसके सभी प्रयत्नों को विफल कर दिया। लगभग 1100 ई. में कीर्तिवर्मन का निधन हो गया।
कीर्तिवर्मन के उपरान्त सल्लक्षण वर्मन (1100-1115 ई.) नरेश हुआ। वह एक पराक्रमी योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। मऊ अभिलेख के अनुसार वह एक उदार, परोपकारी विद्वान तथा कला प्रेमी सम्राट था। सल्लक्षण वर्मन के उपरान्त जयवर्मन, मदनवर्मन, परमार्दिदेव तथा त्रिलोकवर्मन चन्देल नरेश हुए। परमार्दिव कालिंजर का 1165 में शासक था। किन्तु पृथ्वी राज चौहान द्वारा वह पराजित हो गया था। उसके उपरान्त कुतुबुद्दीन ऐबक ने परमार्दिदेव को पराजित कर बुन्देलखण्ड के अधिकांश भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।परमार्दिदेव के दो अत्यन्त निष्ठावान सेनानी थे जिनके शौर्य और बलिदान की कथा जगनिक द्वारा प्रणीत आल्ह खण्ड काव्य में संपुरित है। यह आल्हा-अदल के शौर्य का वर्णन करने वाला, वहां की आंचलिक भाषा में लिखा गया, यह काव्य आज भी बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में अत्यंत लोकप्रिय है। परमार्दि की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र त्रिलोक्वार्मन मुस्लिम आक्रान्ताओं से लड़ता रहा। 1205 ई. में उसने कालिंजर पर पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके उत्तराधिकारी 16वीं शती तक बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर शासन करते रहे।

शाकम्भरी और अजमेर के चौहान Shakambhari And Chauhan Of Ajmer

चाहमान वंश के अनेक राजपूत सरदार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही अजमेर के उत्तर में सांभर झील के निकट सांभर (शाकम्भरी) नामक स्थान पर राज करने लगे थे। इस वंश की अन्य शाखाओं का राज्य आगरा और ग्वालियर के मध्य में धौलपुर नामक स्थान में, रणथम्भौर में और आबू पर्वत के उत्तर में नद्दूल (नंदोल) में भी था, परन्तु ये वंश शाकम्भरी के चौहानों की तरह विख्यात और महत्त्वपूर्ण नहीं थे। इसी वंश के कुछ सरदार गुर्जर महेन्द्रपाल-द्वितीय के समय में उज्जैन के शासक के सामन्त थे। भड़ौच चाहमान सरदार, नागभट्ट-प्रथम के सामन्त थे, सांभर के चौहानों की ही तरह प्राचीन थे।
इस वंश का प्रथम उल्लेखनीय नरेश विग्रहराज-द्वितीय था। उसने सन् 973 के लगभग शासन करना आरम्भ किया और अपने राजवंश की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की। कहा जाता है कि उसने अन्हिलीवाड़ के मूलराज-प्रथम को पराजित किया। पृथ्वीराज-प्रथम ने सन् 1105 ई. के लगभग राज्य किया। उसके पुत्र अजयराज ने अजयमेरु अथवा अजमेर नामक नगर की स्थापना की। उसने बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शासन करना प्रारम्भ किया। वह अपने कुल का प्रथम शासक था जिसने एक आक्रमणात्मक साम्राज्यवादिनी नीति का अवलम्बन किया। उसने उज्जैन पर आक्रमण किया और परमार सेनानायक को बन्दी बना लिया। उसके लिए यह कहा जाता है कि उसने युद्ध में तीन राजाओं को तलवार के घाट उतार दिया। परन्तु हमें इस बात का विवरण प्राप्त नहीं है कि इन युद्धों के फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा में कोई विस्तार हुआ या नहीं। अजयराज के विषय में एक विचित्र बात यह है कि उसकी कुछ मुद्राओं पर उसकी रानी सोमलदेवी का नाम उत्कीर्ण मिलता है। यह बात भारतीय इतिहास में बहुत ही कम दिखलाई पड़ती है। अजयराज के उपरान्त अर्णोराज सिंहासनारूढ़ हुआ, जिसके दो अभिलेखों पर सन् 1139 की तिथि दी हुई है। उसका जयसिंह सिद्धराज और अन्हिलीवाड के कुमारपाल से संघर्ष हुआ। अर्णोराज ने कुछ तुस्कों (अर्थात् पंजाब के मुसलमानों) को, जिन्होंने उसके राज्य पर आक्रमण किया था, युद्ध में पराजित कर दिया और मार डाला।
विग्रहराज-चतुर्थ- विग्रहराज-चतुर्थ अथवा वीसलदेव चाहमान वंश का एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश था, जिसने चाहमानों की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिणत करने का प्रयास किया। सन् 1153 . में विग्रहराज-चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठा। मेवाड़ के नामक स्थान से एक लेख प्राप्त हुआ है जिससे यह सूचित होता है कि उसने गहड़वालों से दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला ली। परन्तु कुछ विद्वानों कथन है कि यद्यपि विग्रहराज-चतुर्थ एक वीर विजेता था और अपनी विजयों द्वारा उसने अपने राज्य की सीमा का पर्याप्त विस्तार भी किया, तथापि उसके द्वारा दिल्ली-विजय की बात प्रमाणिक नहीं मणि जा सकती। उसने जाबालिपुर, नददूल और राजपूताना के अन्य छोटे-छोटे भू-भागों पर अपना अधिकार कर लिया। ये राज्य कुमारपाल के अधीनस्थ थे, अतएव इनको विजित कर विग्रहराज-चतुर्थ ने उस पराजय का बदला लिया जो उसके पिता को चालुक्यों द्वारा सहन करनी पड़ी थी। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि अपनी उत्तरी विजयों द्वारा विग्रहराज ने अमर यश का उपार्जन किया। उसने ढिल्लिका (दिल्ली) को जीत लिया। विग्रहराज-चतुर्थ के लेखों से पता चलता है कि उसका राज्य उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियों तक फैला हुआ था और दक्षिण में कम से कम उदयपुर और जयपुर जनपद को उसके राज्य की सीमा स्पर्श करती थी।
विग्रहराज चतुर्थ- प्राचीन भारत के राजपूत राजाओं की पंक्ति में एक गौरवशाली स्थान का अधिकारी है। वह केवल विजेता ही न था, उसका सुयश उसके एक ग्रन्थ हरिकोल नाटक पर अवलम्बित है। वह स्वयं एक नाटककार था, साथ ही वह विद्वानों और कवियों का आश्रयदाता भी था। सोमदेव उसके दरबार में रहता था, जिसने अपने संरक्षक के सम्मान में ललितविग्रहराज नाटक का प्रणयन किया। उसने मालवा के भोज-प्रथम की भांति अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना कराई थी। इस संस्कृत विद्यालय के स्थान पर एक मस्जिद खड़ी है जो विद्यालय की एक भव्य दीवार तुड़वा कर बनवाई गई थी। अजमेर की इस मस्जिद का नाम अढ़ाई दिन का झोपडा है। इसमें जड़े कुछ पाषाण-खण्डों पर हरिकेल नाटक के कुछ अंश खुदे हुए दिखाई पड़ते हैं। ललितविग्रहराज नाटक भी संस्कृत-विद्यालय के भग्नावशेषों पर उत्कीर्ण मिला है। विग्रहराज-चतुर्थ का देहान्त 1164 ई. में हुआ।
पृथ्वीराज-तृतीय- चाहमान वंश का सबसे प्रतापी राजा पृथ्वीराज-तृतीय या रायपिथोरा था। डॉ. त्रिपाठी के शब्दों में- इस राजा के व्यक्तित्व पर एक अद्भुत प्रभामण्डल है जिसने रोमांचक जनश्रुतियों और गीतों का उसे नायक बना दिया है। जबकि डॉ. मजूमदार ने भी लिखा है कि- भारतीय इतिहास में पृथ्वीराज का नाम एक अद्वितीय स्थान का अधिकारी है। उत्तरी भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट् के रूप में उसकी स्मृति लोकगाथाओं से समलंकृत की गई है और इसने लोकगीतों को विषय प्रदान किया है। चन्दबरदाई नामक सुप्रसिद्ध कवि ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराजरासो में उसे अमर बना दिया है, परन्तु जिस रूप में यह पुस्तक उपलब्ध है, उस रूप में इसे उसके जीवन का समकालीन और प्रामाणिक विवरण-ग्रन्थ नहीं माना जा सकता। उसके जीवनचरित् से सम्बन्धित एक अन्य ग्रन्थ है जिसका नामपृथ्वीराजविजय है। यह प्राचीनतर और अधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है। परन्तु इसका कुछ ही अंश अभी तक प्रकाश में आया है। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी पृथ्वीराज-तृतीय के विषय में अपने विवरण दिये हैं।
पृथ्वीराज-तृतीय एक महान् विजेता और रणबांकुरा सेनानायक था। परमाल नामक चन्देल राजा को उसने पराजित किया और उसने 1182 ई. में उसकी राजधानी महोबा छीन ली। चन्देल-नरेश के ऊपर पृथ्वीराज चौहान की विजय का एक अभिलेखिक साक्ष्य भी प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह महोबा पर अधिक समय तक अधिकार न रख सका।
मुख्यतः इस बात पर पृथ्वीराज का यश अवलम्बित है कि उसने मुस्लिम आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया, यद्यपि देश में राष्ट्रीयता की भावना के अभाव और अपनी ही राजनैतिक अदूरदर्शिता के कारण वह दुबारा इस आक्रमण के सामने ठहर न सका। मुहम्मद गोरी ने पंजाब को विजित कर लेने के उपरान्त, पृथ्वीराज चौहान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह चौहान राजा के साथ मित्रता करना चाहता है। परन्तु पृथ्वीराज ने, जो इस समय यौवन की स्फूर्ति और साहसिकता से उद्वेलित हो रहा था, न केवल गोरी के प्रस्ताव को घृणापूर्वक ठुकरा दिया, वरन् वह मुहम्मद गोरी से मोर्चा लेने के लिए आगे बढ़ा। मन्त्री के परामर्श को मानकर वह चुपचाप गोरी के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा। जब मोहम्मद गोरी, पृथ्वीराज के राज्य की सीमा में प्रविष्ट होकत उसकी प्रजा को संत्रस्त और उत्पीडित करने लगा तो चाहमान-राजा एक विशाल सेना लेकर उसका सामना करने के लिए आगे बाधा। तारें के मैदान में दोनों सेनाओं की मुटभेड़ हुई औरर एक भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में मुसलमानों के छक्के छूट गए और वे भाग खड़े हुए। गोरी बड़ी कठिनाई से अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ प्राण लेकर रणक्षेत्र से भाग निकला। भुजते हुए प्रदीप की अंतिम प्रभापूर्ण शिखा की भांति हिंडौन की यह अंतिम महँ सैनिक सफलता थी।
परन्तु इस गहरी पराजय से गोरी तनिक भी हतोत्साह नहीं हुआ, वरन अपनी इस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए वह दिन-रात बेचैन रहने लगा। मध्य एशिया के पहाड़ी लड़ाकुओं की एक विशाल सेना एकत्र कर गोरी ने पुनः अगले ही वर्ष पृथ्वीराज पर आक्रमण कर दिया। वीरतापूर्वक राजपूत सैनिकों ने युद्ध किया परन्तु अन्त में उनको पराजय ही का मुख देखना पड़ा। इस युद्ध में अनेक वीर राजपूत सरदार दिवंगत हुए। स्वयं पृथ्वीराज भी बन्दी बना लिया गया और उसे तलवार के घाट उतार दिया गया। शाकम्भरी और अजमेर के राज्य पर गोरी ने अपना अधिकार जमा लिया।
मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को अजमेर के सिंहासन पर बैठा दिया और उसे वार्षिक कर भेजने के लिए विवश किया। परन्तु कुछ ही समय के बाद अपने चाचा के कारण उसे अजमेर छोड़कर रणथम्भोर चले जाना पड़ा। पृथ्वीराज के पुत्र ने रणथम्भौर में अपने एक नये राजकुल की स्थापना की जिसका अन्त अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1301 में किया। इधर कुतुबुद्दीन ने हरिराज को पराजित कर चौहान वंश का अन्त कर दिया।